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श्री जैन शासन संस्था
काल-भाव की प्रधानता से ही हो सकती है। साधक विशेषण छोड़कर नहीं ।
२४. देरासर - उपाश्रम धर्म स्थान निर्माण होते ही उसके निभाव ( रख-रखाव ) की व्यवस्था हो जाना आवश्यक है । २५. देरासर - उपाश्रय का निर्माण लॉटरी पद्धति से करना उचित नहीं ।
२६. देरासर - उपाश्रय आदि के निभाव बाबत रकम ब्याज पर रखने की अपेक्षा भूमि, भवन आदि स्थायी (स्थावर ) संपत्ति बसा लेना ( रखना) अधिक अच्छा है । वहीवटदार उचित भाड़ा बाजार भाव से उगावे ।
२७. देव द्रव्य की आवक (आय) द्वारा प्राप्त की हुई स्थायी संपत्ति देरासर के कार्य हेतु ही वापर सकते हैं ।
२८. साधारण द्रव्य ( खाता) की रकम ( भेंट - आय-प्राप्ति आदि) या स्थायी संपत्ति सात क्षेत्र में ले जाई जा सकती है ।
२९. देरासर, उपाश्रय धर्म स्थानों आदि के निभाव हेतु आरस ( मकराना - संगमरमर ) की तख्ती पर नाम लिखकर अथवा कूपन पद्धति से रकम प्राप्त की जा सकती है ।
३०. देरासर, उपाश्रय आदि धर्म स्थानों के निभाव हेतु उन-उन क्षेत्रों के महाजन, जैनियों के शुभ-अशुभ (जन्म-विवाहमृत्यु) प्रसंगों पर अथवा सुखी संपन्न जैनियों की आय की वृद्धि में से मीठास ( मधुर वचन ) से प्राप्त कर सकते है ।
३१. देव द्रव्य की रकम या ब्याज भूल से भी व्यापार या सांसारिक कार्य में उपयोग करे तो देव द्रव्य का भक्षक बनता है और दुर्गति का भागी बनता है ।
३२. सात क्षेत्र, जीव दया, स्वामी वात्सल्य, आयंबिल
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