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श्री जैन शासन संस्था
के क्षेत्र के द्रव्य की वृद्धि (अधिमूल्यन) से सात क्षेत्र संबंधी विचार दूषित होते हैं, यह पद्धति ( विचार धारा ) जिनाज्ञाशास्त्राज्ञा विरुद्ध है । सात क्षेत्र की अवमानना (अवमूल्यन, अपमान) होता है ।
८. देरासर (मन्दिर) अथवा देरासर की सीमा (प्रांगण, परिसर) के किसी स्थान में देरासर संबंधी साधारण भण्डार के अलावा कोई भी प्रकार का भंडार रखा हो नहीं जा सकता है। इसकी आवक भी देरासर के कार्य में ही खर्च हो सकती है ।
९. सात क्षेत्र रूपी धर्म (धामिक) द्रव्य की रक्षा के लिये सुविधा अनुसार व्यवस्था में खर्च घटाना आवश्यक है ।
१०. उचित व्यवस्था हेतु पूज्य गुरु भगवंतों की निश्रा में सापेक्ष योग्य विचार कर आर्थिक व्यवस्था करना चाहिये।
११. सात क्षेत्र आदि सभी खाते पृथक्-पृथक् (अलगअलग) ही रहने चाहिये । परस्पर एक में दूसरे का उपयोग नहीं हो सकता है । (ऊपर दर्शाये अपवादों को छोड़कर) ।
१२. जनरल-साधारण (सुकृत-शुभ) खाते के द्रव्य में से देव के साधारण खाते में उपयोग (व्यय) हो सकता है। किन्तु देव के साधारण खाते में से अन्य क्षेत्र में खर्च नहीं हो सकता है।
१३. श्रावक-श्राविकाओं को देव-गुरु की भक्ति भावोल्लास पूर्वक स्व (निजी-व्यक्तिगत-अपने खुद के ) द्रव्य से करने का आग्रह रखना चाहिये।
१४. मुळ उतार कर स्व द्रव्य से प्रभु भक्ति में जितना उल्लास एवं लाभ है उतना उल्लास एवं लाभ देरासर के द्रव्य द्वारा नहीं, यह अनुभव सिद्ध तथ्य (हकीकत) है।
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