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जैन - रत्नसार
सौ वर्ष की दीक्षित साध्वी आज के दीक्षित साध की अगवानी करे, वन्दन करे, नमस्कार करे, विनय के साथ आसन दे और यह समझे कि यह पूज्य हैं ||१४||
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धम्मो पुरिसप्पभवो पुरिसवरदेसिओ पुरिस जिट्ठो ॥ लोएवि पहू पुरिसो किं पुण लोगुत्तमे धम्मे ||१५||
पतन की ओर जानेवाले को जो बचाता है, वही धर्म्म है । वह धर्म पुरुषों द्वारा अर्थात् तीर्थङ्करों एवं गणधरों के दीमाग से ही पैदा हुआ है और उस धर्म के सचमुच पालक रक्षक पुरुष ही हुए हैं । लोक में भी पुरुष ही प्रभुताशाली होते हैं । इसलिये स्त्रियों से पुरुषों का दर्जा ऊंचा है ||१५||
संवाहणरस रण्णो तइया, बाणारसीइ णयरीए । कण्णा सहस्स महियं, आसी किररूव वंतीणं ॥ १६ ॥ तहविय सा रायसिरी, उलटंती पण ताइया ताहिं । उयरट्ठिएण इक्केण, ताइया अंगवीरेण ॥१७॥
उस जमाने में बनारस में संवाहन नामक राजा के बड़ी सुन्दरी हजार कन्याएं थीं । पर जब दुश्मनोंने लूटने के ख़याल से उस राजा पर चढ़ाई की तो वे कन्यायें राजलक्ष्मी को न बचा सकीं । पर उसके गर्भ से प्रादुर्भूत अकेले अंगवीर्य पुत्रने ही राजलक्ष्मीको दुश्मन राजाओं से बचा लिया । इसलिये पुरुष की प्रधानता न्याय संगत है ।
महिलाणसु बहुयाणवि, अज्जाओ इह समत्त घर सारो । राय पुरुसेहिं णिज्जइ, जणेवि पुरिसो जहिं णत्थि ॥ १८॥
स्त्रियां कितनी ही चतुर क्यों न हों, अगर उसके घर में पुरुष नहीं, उत्तराधिकारी औलाद नहीं तो राज पुरुष उनके घर से संचित धन ले जाकर राजकोष (खजाने) में जमा कर लेते हैं । स्त्रियों का कुछ वश नहीं चलता । इससे भी पुरुष की प्रधानता सिद्ध होती है ॥१८॥
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किं पर जण बहुजाणा, चणाहिं वरमप्प सक्खियं सुकयं । इह भरह चकवट्टी, पसण्ण चंदो य दिहंता ॥१९॥