Book Title: Jain Ratnasara
Author(s): Suryamalla Yati
Publisher: Motilalji Shishya of Jinratnasuriji

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Page 708
________________ [ २ ] मुख्य हैं। अगर इनको एकान्त नित्य या एकान्त अनित्य ही मान लिया जाय तो कोई भी बात साबित नहीं होती। एकान्त नित्य माना जायगा तो वह सदा एक स्वभाव में स्थित रहेगा, उसकी अवस्था में भेद न होगा। अवस्था भेद हुए बिना संसार और मोक्ष भी न होंगे। यो सारी गडबडी मचेगी, अगर संसार और मोक्ष को कल्पित कहा जाय तो उसकी उपलब्धिका भी अभाव हो जायगा। अतः एकान्तरूप से आत्मा नित्य नहीं हो सकती। और एकान्त अनित्यत्व तो कोई तरह से घटना नहीं। क्योंकि इसमें तो असद की उत्पत्ति और सद् का अभाव का प्रसंग आता है जो सर्वथा असंभव है। लेकिन जब उसे अनेक धर्मों की अपेक्षा से नित्य और अमुक की अपेक्षा से असत्य मानते हैं तो कोई झगड़ा खड़ा नही होगा। सद असद का विचार भी इस में हो जाता है। सद् वही है जो उत्पन्न होता हो, नष्ट होता हो, स्थिर भी रहता हो। आपने सुनार को सोने का कड़ा दिया और कहा अंगूठी बना दो। अब देखिये, सोने की दृष्टि से सोना तो कायम ही रहता है और कड़ा नष्ट हो जाता है और अंगूठी की उत्पत्ति हो जाती है। संसार में जितने पदार्थ आप देखते है सभी में आप ये लक्षण पायेंगे। जिन में ये लक्षण न हों उसका प्रादुर्भाव ही नहीं हो सकता। इसलिये ये हुआ सत्का लक्षण। और इसकी सिद्धि अपेक्षा से होती है। जिस मूल रूप में वस्तु सदा स्थित रहती है वह द्रव्य कहलाता है और जिस रूप में इसका एक तरह से नाश और दूसरी तरह से उत्पत्ति होती है वह पर्याय कहलाता है। द्रव्य की दृष्टि से देखा जाय तो सभी घटपटादि पदार्थ नित्य हैं, अर्थात् वे किसी न किसी मूल रूप में अवश्य स्थित है। और पर्याय रूप से देखा जाय तो सभी अनित्य हैं। वेदान्त औपनिषद-शांकरमत सत् को केवल नित्य मानते हैं। बौद्ध लोग सभी वस्तुओं को अनित्य क्षणस्थ भी मानते है। साख्य दर्शनवाले चेतन तत्त्वरूप सत् को केवल ध्रुव नित्य और प्रकृति तत्त्व रूप सत नित्यानित्य मानते है। जब जैन दर्शन की मान्यतानुसार जो सार वस्तु है वह पूर्ण रूप से फकत नित्य या उसका अमुक भाग अनित्य या अमुक परिणाम नित्य और अमुक अनित्य नहीं हो सकता। चाहे जीव हो या अजीव, रूपी हो या अरूपी, सूक्ष्म हो या स्थूल सभी सत् कहलानेवाली वस्तुएं इन तीन धर्मों मे युक्त होंगी। इन सब धर्मों की विवक्षा अच्छी तरह से समझ में आ सके इसलिये इस के सात रास्ते बताये है जो जैन तत्त्वज्ञान में सप्तभंगी ( सत् भंग भेद ) के नाम से प्रसिद्ध हैं। १ स्यादस्ति, कुछ ( अमुक दृष्टि से ) है। २ स्यान्नास्ति, कुछ नहीं है। ३ स्यादस्तिनास्ति। कुछ है कुछ नहीं। एक साथ में४ स्यादवक्तव्यम् । एक तरह से अवाच्य है। ५ स्यादस्ति अवक्तव्यम् । कुछ है कुछ अवाच्य है। ६ स्यादनास्ति अवक्तव्यम् । कुछ नहीं है और कुछ अवाच्य है। ७ स्यादस्ति नास्ति अवक्तव्यम् । कुछ है कुछ नहीं है और कुछ अवाच्य है। प्रश्न वशात् एकस्मिन् वस्तुनि अविरोधेन विधि प्रतिषेध कल्पना-सप्तभंगी। अर्थात् एक वस्तु के भिन्न-भिन्न धर्मों का निरूपण विधि निषेध की कल्पना से करना सप्त भंगी है। सत् के तीन लक्षण बताये हैं। उत्पात, व्यय, और ध्रुव। दूसरे उदाहरण के तौर पर आप तीन अंक १-२-३ को लीजिये।

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