Book Title: Jain Ratnasara
Author(s): Suryamalla Yati
Publisher: Motilalji Shishya of Jinratnasuriji

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Page 709
________________ [ ३ ] १२३, २३१, ३२१, २२३, ३१२, १३२ ये छ रूप हुए सातवां नहीं का । इनको प्रकारान्तर में लिखे जांय । इससे ज्यादा रूप नही हो सकते। इसे आप कोई भी वस्तु में घटा सकते हैं। है। यह पहला भंग है। इसमें अन्य धर्मों की गौणता है । वस्त्र नही है - अर्थात् जब कुछ भी दूसरी वस्तु पर ध्यान दिया जाय तो उस समय वस्तु का अभाव मालूम होगा तव कहा जायेगास्यान्नास्ति । पर दर असल में वह वस्तु है पर ध्यान से चूके है इसलिये एक ही समय में अस्ति नास्ति का भेद लागू होगा। जब वस्तु अस्तित्व और नास्तित्व इन दोनों धर्मो से वस्तु युक्त है । यह बात तो विवक्षित हो, परन्तु दोनों का क्रमसे वर्णन करना विवक्षित न हो उस वक्त उस वस्तु को न सत् कह सकते हैं और न असत् तब उसे स्याद्वक्तव्य कहते हैं। शेष भंग विकल्पों के संयोग रूप में है । दुसरा विकलादेश । सकलादेश - जैसा नामसे स्पष्ट है और समूची वस्तु का विचार करने के कारण ये द्रव्यका अमुक अंश का विचार होता है । सप्तभंगी के दो भेद है । एक सकलादेश यह वस्तु के अन्य धर्मों का भी बोध कराता है। विचार करता है । जब विकलादेश में वस्तु के १-२-४ ये भंग सकला देश के हैं शेष विकला देश के । संक्षेप में कहा जाय तो वस्तु के गुण धर्मों को अच्छी तरह समझने के लिये स्याद्वाद ही ऐसा सिद्धान्त है जिसमें पूर्णता पाई जाती है। कई मानते हैं - कहते है - अजी यों भी हां, और त्यों भी हां। ये भी कोई मान्यता है । ऐसा कहनेवाले ही एक तरफ झुक जाते हैं । जव प्रत्यक्ष है कि बाप बेटे की दृष्टि से बाप है और खुद के बाप की दृष्टि से तो बेटा ही है फिर क्यों कर झूठ माना जाय । तो अपेक्षा दृष्टि से वस्तु का सम्पूर्ण विचार करना ही उसका पूरा विचार है । और इसलिये जैन दर्शन का स्याद्वाद अनेकान्त सिद्धान्त सर्वथा ठीक है । सप्त नय प्रत्येक चीज की सिद्धि के लिये प्रमाण चाहिये । और वे भिन्न भिन्न प्रत्यक्ष और परोक्ष दो तरह के माने गये हैं । उनके भी भेद प्रभेद चलते है । पर सभी का मतलब वस्तु परीक्षण से ही है । प्रमाण वस्तु को सारी बाजुओं से देखता है यह बात भी सच है कि अनेक चीजों के विपयक एक या अनेक व्यक्तियों के अनेक तरह के विचार होते है । अगर एक ही वस्तु के विषयक भिन्न भिन्न विचारों की गणना की जाय तो वे अपरिमित मालूम होंगे। और इससे वस्तु का बोध करना ही अशक्य हो जायगा । प्रमाण जव सर्व ग्राही होने से वस्तु का समग्र विचार करता है जब अति विस्तृत मार्ग को छोड़कर वस्तु का निरूपण नयों द्वारा होता है । या नयों का अर्थ हम यों कर सकते है- नय अर्थात् भिन्न भिन्न पदार्थ एक दूसरे में मिश्रित न हो जाये इस तरह सिद्धि के वचनों को सिद्ध करने का साधन । वस्तु के मूल में पहुंच कर उनके एक अंश को लेकर उस पर पूरा विचारने का साधन | या स्पष्टार्थ यह होगा कि नय याने विचारों का वर्गी करण । विचारों की मीमांसा । . कई दफा एक ही वस्तु के विपयक अमुक अमुक विपयों के भिन्न भिन्न अभिप्राय होते हैं - देखने में वे भिन्न मालूम होते है पर एक या दूसरी तरह से उस पर गौर किया जाय तो उसमें विशेष अंतर मालूम नही होता । नय ये ही काम करते हैं, जो विचार भिन्न दिखाई देते है पर वास्तव मे भिन्न नहीं है, उनका एकीकरण करते हैं।

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