Book Title: Jain Ratnasara
Author(s): Suryamalla Yati
Publisher: Motilalji Shishya of Jinratnasuriji

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Page 736
________________ [३०] - पर पधारे। वहां नौ सौ केवलियों के साथ प्रभु ने एक मास तक अनशन किया । त्रयोदशी के दिन, जब चन्द्रमा भरणी नक्षत्र में था, तब प्रभु ने मोक्ष पद को प्राप्त किया । “यस्योपसर्गाः स्मरणेन यांति, विश्वे यदीयाश्च गुणा न भांति । "मृगांक लक्ष्म्या कनकस्य कांतिः, संघस्य शांति स करोतु शांतिः ॥ अर्थात् जिनके स्मरण से सब उपसर्ग दूर होते हैं, जिनके गुण सारे विश्व में भी नहीं समाते, जिनके मृग का लांछन है, और जिनके शरीर को कांति सुवर्ण के समान है, वे श्री शांतिनाथ भगवान श्री संघ की शांति करें ।" ज्येष्ठ मास की कृष्ण आषाढ़ मास पर्वाधिकार आषाढ़ सुदिप से पूर्णिमा तक चातुर्मासिक अट्ठाई के दिन अति उत्तम हैं। इसमें आपाढ़ सुदि १४, चौमासी चतुर्दशी के नाम से प्रसिद्ध है। जैसा कहा भी है कि सामायिकrवश्यक पौपधानि, देवार्चनं नात्र विले पनानि । - ग्रह्म क्रिया दान तपो मुखानि, भव्याश्चतुर्मासिक मंडनानि ॥१॥ अर्थ सामायिक करना, पौषध लेना, देव पूजन करना, यथाशक्ति दान करना, तप करना आदि कृत्य चतुर्मास के अलंकार भूत हैं अर्थात् करने योग्य हैं । अतएव इस अठाई में यथाशक्ति सामायिक, प्रतिक्रमण, पोसह आदि करना चाहिये। मंदिर जी में नाना प्रकार की पूजायें करवानी चाहियें। शीलव्रत का पालन करना चाहिये। जहां तक बन सके सुपात्रदान देना चाहिये और तपस्या करनी चाहिये। मतलब ये है कि जहां तक भी हो सके धर्म का उद्योत एवं वृद्धि करनी चाहिये । चतुर्दशी के दिन मंदिर जी में जाकर शक्रस्तव से देव वंदना करनी चाहिये । गुरु महाराज से चौमासिक पर्व का व्याख्यान सुनना चाहिये। सब चीजों का प्रमाण करना चाहिये अर्थात् श्रावक के चौदह नियम धारने चाहिये जितनी चीजों का त्याग हो सके उनकी सौगंध लेनी चाहिये । इसी प्रकार कार्त्तिक चौमासे और फागुन चौमासे का भी विधान समझना । जिनदत्त सूरिजी चारित्र आषाढ़ सुदि एकादशी, को दादा जी का स्वर्गवास हुआ। इसलिये इस दिन जिनदन्त सूरि जी जयंति मनाई जाती है क्यों कि इससे संघ में किसी तरह का उपद्रव नहीं फैलता और संघ में आनन्द मंगल का प्रादुर्भाव रहता है। श्री महावीर स्वामी के शिष्य पांचवें गणधर श्री सुधर्मा स्वामी की पट्ट परांपरा में शासन प्रभावक, में चरित्र नायक श्री जिनदत्त सूरि जी हुए। इन सूरि जी का गुजरात के धुंधुका नगर में संवत् ११३० जन्म हुआ माता श्री का नाम 'वाहरदे' और पिता श्री का नाम (हुम्बड जातीय ) वांछिग मंत्री था। आपका जन्म नाम सोमचन्द्र था । 'होनहार बिरवान के होत चीकने पात' की कहावत आप में बचपन से ही दृष्टि गोचर होने लगी । ५ वर्ष की उम्र में पढ़ने को भेजे गये और शीघ्र ही अपनी तीक्ष्ण बुद्धि से सव को आश्चर्यान्वित कर दिया। संवत् १९४१ में जिनेश्वर सूरि जी के शिष्य उपाध्याय धर्म देव से इन्होंने ११ वर्ष की वाल अवस्था में दीक्षा 1 २० वर्ष की अल्प अवस्था में ही सम्पूर्ण शाल अभ्यास कर लिया और गीतार्थ जैन साधु यन

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