Book Title: Jain Ratnasara
Author(s): Suryamalla Yati
Publisher: Motilalji Shishya of Jinratnasuriji

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Page 744
________________ [ ३८ 1 आचार्यजी के सम काल मे भारत का शासन मुसलमानों के हाथ में था। दिल्ली के राज्यसिहासन पर उन दिनोंमें अकवर बैठा था। उनकी नीति बड़ी अच्छी थी। इसलिये क्या हिन्दू, क्या मुसलमान सब समान रूपेण अकबर से प्रसन्न रहा करते थे। और उसकी सभा मे.इएक मजहब के लोग आधा जाया करते थे। पण्डित, मौलवी, करामाती, फकोर, साधु, संन्यासी सभी समान दृष्टि से देखे जाते थे और बुलाये भी जाते थे। यही कारण है कि सम्वत् १६५१ में अकबर बादशाह का दरवार लाहौर में लगा हुआ था, जैन धर्म के सबसे बड़े विद्वान् श्री जिनचन्द्र सूरि को आग्रह पूर्वक बुलाया गया। जब आचार्य ने दरवार मे पदार्पण किया कि इनके सम्मानार्थ मुगल साम्राज्य के सबसे बड़े काजी (न्यायाधीश ) ने उठ कर खड़ा होते हुए साथ-साथ परीक्षा भी ली। उसने अपनी टोपी अदभुत् करामात ते आकाश में उड़ाई, इसलिये कि देख ये कुछ इस वहाने अपनी महत्ता दिखाते हैं कि नहीं। यति प्रवर ने उसके मनकी वात ताड़ ली। फलतः अपनी चमत्कारी शक्ति से उसकी उड़ती टोपी को लाकर उसके सिर पर ज्यों की त्यों रख दिया । अकवर सहित सारा दरबार चकित रह गया। सम्र ट ने इन्हें बैठने के लिये कहा, इन्होंने कहा कि यहां जीव हैं फलतः वैठना मेरे लिये नियम विरुद्ध होगा। अकबर ने कहा बतलाइये कि कितने जीव हैं ? आचार्य ने कहा, तीन जीव हैं। काजी ने देखा तो ठीक तीन जीव थे। एक बकरी थी और उसने दो बच्चे बने थे। काजी, अकवर तथा सारी सभा आश्चर्य चकित रह गई। अकवर को इनपर बड़ी श्रद्धा हुई। इन्हें बहुत कुछ देना भी चाहा पर त्यागी ये महात्मा क्यों लेने लगे ? अकवर की तरह उसका बेटा जहांगीर भी इन्हें सम्मानपूर्ण दृष्टि से देखा करता था। अकबर तथा उसका पुत्र जहांगीर ने इनकी महनीयता-योग्यता से प्रभावित होकर, विशिष्ट धार्मिक तिथियोंमे, वर्ष के वारह दिनों में अपने समस्त राज्य मे कतई जीव हिंसा न करने का फरमान निकाला था। इन बारह दिनों में भाद्रपद के पर्युपण के आठ दिन तो मुख्य थे ही, शेष चार दिनों में भी जीवहिंसा न होती थी। इसी तरह इन महान आत्मा के जरिये अगणित लोकोपकार हुए। सच तो यह है कि ऐसे महात्मा का आविर्भाव ही समाज, शास्त्र, संसार, धर्म, नीति आदि की रक्षार्थ हुआ करता है। नहीं तो सृष्टि कर नाश को प्राप्त कर गयी होती। मेरे चरितनायक ने सम्पूर्ण भारत की परिक्रमा की थी और सर्वत्र अपने उपदेशामृत से लोगों को कृतार्थ किया था। आपने कई अन्य भी लिखे, जिनमें सबसे आदर्श निर्मल चरित्र' है। आचार्यदेव का देहावसान सं० १६७० की आश्विन कृष्ण द्वितीया को वेनातट (वेलाड़ा) मे हुआ। ___ कार्तिक मास पर्वाधिकार कार्तिक मास मे कार्तिक वदि अमावस्या दीपमालिका ( दीवाली ) के नाम से प्रसिद्ध है। चौबीसवें तीर्थंकर श्री महावीर स्वामी साधु साध्वियों के साथ विहार करते हुए अन्त मे पावापुरी आकर रहे। अपना अन्तिम समय निकट जानकर 'हस्तिपाल राजा' की शुक्ल शाला में आये। अपने ऊपर गौतम स्वामी (प्रथम गणधर ) का अत्यधिक स्नेह देखकर उन्हें समीप के ग्राम मे देवशर्मा नामक ब्राह्मण को प्रतिवोध देने के लिये भेजा। उनके जाने के बाद पद्मासन धारण करके सोलह प्रहर तक अखण्ड देशना दी। इस प्रकार वहत्तर वर्ष की आयु पूर्ण करके इसी अमावस्या के दिन रात्रि को स्वाती नक्षत्र आनेपर निर्वाण को प्राप्त हुए ! उसी समय चौसठ इन्द्रों के आने से अनुपम उद्योत हुआ। उस समय भगवानरूपी दीपक के अस्त हो जाने से सभी ने रनों से उद्योत किया और तभी से दीपावली पर्व मनाया जाने लगा।

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