Book Title: Jain Ratnasara
Author(s): Suryamalla Yati
Publisher: Motilalji Shishya of Jinratnasuriji

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Page 753
________________ यौवनावस्था को प्राप्त होने पर राजा प्रसेनजित की कन्या प्रभावती से इनका विवाह सम्पन्न हुआ। ___ एक समय इन्होंने सुना कि कमठ नाम का तपस्वी इस नगर में आया है अपने चारों ओर अग्नि जला कर तप करता है। ये भी हाथी पर सवार होकर गये। अवधिज्ञान से प्रभु ने लकड़ी में सर्प देखा और उस तपस्वी से कहा देख उस लकड़ी में सर्प जल रहा है। सन्यासी ये सुनकर आगबबूला हो गया। तब कुमार ने लकड़ी फड़वाई। वास्तव में उसमें तड़पता हुआ सर्प देख कर सभी को भारी विस्मय हुआ। पार्श्व कुमार ने उसे ॐ हीं असिआउ साय नमः, नमस्कार मन्त्र सुनाया जिससे वह मरकर धरणेन्द्र हुआ और कमठ मर कर मेघमाली नाम का देव हुआ। कुछ समय पश्चात् लोकांतिक देवताओंने प्रभु से प्रेरणा की। प्रभु ने भी जीवों को सच्चा मार्ग दर्शाने के लिए एक वर्ष तक वर्षी दान देकर पौष वदि एकादशी के दिन ३०० पुरुषों के साथ दीक्षा धारण की। इस प्रकार दीक्षा लेकर प्रभु कठिन तपस्या करने लगे। एक समय प्रभु जब ध्यानावस्थित खड़े थे, उस समय मेघमाली ने अपना पूर्व भव स्मरण करके, अपने तिरस्कार का बदला लेने के लिये प्रभु पर अति बृष्टि की। शीघ्र ही जल भगवान् के गले तक पहुंच गया। तब धरणेन्द्र ने झट आकर भगवान को एक कमल के सिंहासन पर बिठाया और अपना सर्प का रूप बना कर अपने फणों से उनके सिर पर छाया की! ये देखकर कमठ को लज्जा आई और वो प्रभु से क्षमा मांग. नमस्कार कर स्वस्थान को चला गया। इसी प्रकार अनेक तपस्यायं करते उपसर्गों को सहते हुए भगवान् को चैत्र वदि चतुर्दशी के दिन केवलज्ञान प्राप्त हुआ। प्रभु ने विचर विचर कर लोगों को उपदेश देना आरंभ किया। अनेक भटकते हुए जीवों को संसाररूपी महासागर से पार लगाया। विक्रम संवत् से ८२० वर्ष पूर्व, श्रावण वदि अष्टमी के दिन सम्मेतशिखर पर्वत पर १०० वर्ष की आयुष्य पूर्ण करके निर्वाण पद को प्राप्त किया। इसी कारण आजकल इस पर्वत को पार्श्वनाथ हिल (पहाड़ी ) भी कहते हैं। माघ मास पर्वाधिकार माघ मास में माघ वदि १३ मेरु तेरस के नाम से प्रसिद्ध है। इसी दिन श्री ऋषभ देव स्वामी का निर्वाण कल्याणक है। इस पर्व की उत्पत्ति कुमर पिंगल राय ने की। अयोध्या नगरीमें अनन्तवीर्य राजा राज्य करताथा।उसके एक पंगु (पैरहीन) पुत्र हुआ जिसका नाम पिंगल राय था। उसने गांगिल मुनि से इस पर्व का अधिकार सुनकर १३ मास तक तपस्या की। उसके फलस्वरूप उसका पंगुपन जाता रहा और सुन्दर रूप प्रगट हुआ। इस प्रकार पुनः तेरह १३ वर्ष तक इस पर्व की आराधना करके नगर में ऊजमना किया। तेरह मन्दिरों का निर्माण करवाया । उसमे तेरह प्रतिमा सुवर्णमयी, तेरह चांदीमयी और तेरह प्रतिमा रत्नमयी स्थापित की। तेरह दफा श्री संघ सहित तीर्थों की यात्रा की। तेरह साधर्मीवत्सल किये। इस तरह बहुत ज्ञान की भक्ति की। अन्त में श्री सुत्रताचार्य मुनि से दीक्षा लेखर क्रमशः सव कर्मों को खपा कर जीवों को प्रतिबोध देते हुए मोक्ष गये । इसीलिये ये पर्व अति उत्तम और कल्याणकारी है। जो भव्य इसकी आराधना करेंगे वे रूप, गुण, तेज और समृद्धी को प्राप्त करेंगे।

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