Book Title: Jain Ratnasara
Author(s): Suryamalla Yati
Publisher: Motilalji Shishya of Jinratnasuriji

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Page 738
________________ ३२ ] [ भाव को छोड़कर इनके चरणोंमें गिर पड़े और जैन धर्म को धारण कर लिया तब गौ उठ कर निकल गई। ___एक दफा गिरनार पर्वत पर अंबड़ नाम के श्रावक ने अट्ठम तप करके अम्बिका देवी का आराधन किया। देवी के प्रत्यक्ष दर्शन देने पर नागदेव श्रावक ने शासन प्रभावक युग प्रधान का पता पूछा देवी ने सुवर्णाक्षरों से उसके हाथ में एक श्लोक लिख दिया और कहा कि इसके पढ़ने वाला ही शासन प्रभावक युग प्रधान होगा। नागदेव ने अनेक आचार्यों को हाथ दिखाया मगर कोई पढ़ न सका । अनुक्रमसे वो पाटण पहुंचा। सूरि जी को हाथ दिखाया। चूंकि श्लोक उन्हीं से सम्बन्ध रखता था इसलिए गुरु महाराज ने उसके हाथ पर वासक्षेप कर अपने एक शिष्य को पढ़ने की आज्ञा दी उसमें लिखा था: दासानुदासा इव सव देवाः, यदीय पादान्ज तले लुठति। मरुस्थली कल्पतरुः स जीयाद, युग प्रधानो जिनदत्त सूरिः॥१॥ अर्थात् जिनकी सेवा में सब देव दासों की तरह सेवा करते हैं जो मरुस्थल की भूमि के लिए कल्प वृक्ष के समान हैं ऐसे युग प्रधानाचार्य श्री जिनजत्त सूरिः जयवंता हों। इसी समय से इनको युग प्रधानाचार्य की पदवी दी गई। इसी तरह प्रामानुग्राम विहार करते हुए आप मुलतान पधारे। यहां के लोगों ने बड़ी भक्ति भाव से उनका स्वागत किया। दैवयोग से आपकी इस कीर्ति और महिमा को देख कर अंबड ईर्ष्या करने लगा। एक दिन घमंड से उसने कहा कि यदि आप मेरे पाटन में इस तरह महोत्सव से आवें तो मैं आपको चमत्कारी जानूं। गुरु महाराज ने अत्यन्त नर्मी से उत्तर दिया कि 'हे श्रावक जिसका पुण्य प्रबल होता है उसी को मान मिलता है। कालान्तर में आप पाटन गये और आपका नगर प्रवेश बड़ी धूमधाम से किया गया। द्वषी अंबड़ भी मौजूद था मगर काल चक्र ने उसको निर्धन बना दिया था। किन्तु फिर भी उसने द्वष भाव को नहीं छोड़ा। कपट से गुरु महाराज से क्षमा मांगी और अपने आपको परम भक्त जितलाने लगा। सरल परिणामी गुरु महाराज इस की चाल में फंस गये, इस ने समय पाकर विष मिश्रित शक्कर का पानी उपवास के पारणे में बहरा दिया। थोड़ी ही देर में विप ने अपना असर दिखाया। परन्तु जाको राखे साइयां मार न सपके कोए, वाली कहावत के अनुसार जव, श्री संघ को विप पान का पता चला तब नगर सेठ आबुशाह ने विष अपहरण जड़ी मंगवा कर गुरु महाराज को सेवन कराई। श्री संघ ने अंबड़ को खूब लज्जित किया। और वह मर व्यंतर देव हुवा । एक समय विक्रमपुर में महामारी का उपद्रव हुआ। दादाजी ने जैन संघ में महामारी का उपद्रव दूर किया तब माहेश्वरी जाति के लोगों ने गुरु महाराज से प्रार्थना की हमें भी बचाइये। गुरुजी के उपदेश से वे माहेश्वरी जैनी हुए और बहुतों ने तो दीक्षा ही ग्रहण कर ली और इस तरह महामारी के उपद्रव से बच गये। इस प्रकार जीवों का उपकार करते हुए श्री जिनदत्त सूरिजी महाराज ७६ वर्ष की आयु पूर्ण करके विक्रम संवत् १२११ आषाढ़ सुदी ११, गुरुवार को अजमेर मे अनशन करके स्वर्ग सिधारे। ये सौधर्म देवलोक में टक्कर नाम के विमान में चार पल्योपम की आयुष्य वाले देव हुए। वहां से च्यव कर महाविदेह में मोक्ष जावेंगे। जिनदत्त सूरिजी के रचित ग्रन्थ १ संदेह दोहावली, २ उत्सूत्र पदोघाटन कुलक, ३ उपदेश कुलक, ४ अवस्था कुलक, ५ चैत्यवंदन कुलक, ६ गणधर साध शतक, ७ चरचरी प्रकरण, ८ पदस्थान विधि, ६ प्रबन्धोदय प्रन्थ, १० कालस्वरूप

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