Book Title: Jain Ratnasara
Author(s): Suryamalla Yati
Publisher: Motilalji Shishya of Jinratnasuriji

View full book text
Previous | Next

Page 707
________________ परिशिष्ट पर स्थाद्वाद सप्तभंगी संसार में जितने भी मत-दर्शन और जातियां हैं सभी सत्य की खोज करती हैं। उसके सम्मान्य विद्वानोंने अथाक प्रयत्न कर तत्त्वरूपेण सत्य को प्राप्त कर, अनुभव से अपने अपने अनुभव दुनियाके सामने रक्खे है। उसके बाद के अनुयायिओं ने, उनकी मान्यता को समझ कर उसका अनुसरण कर येन केन प्रकारेण उसे सिद्ध करने की कोशिश की है। सत्य तो स्वयं जैसा है वैसा शुद्ध है, पर उसे प्राप्त करने के साधनों में विभिन्नता है, सत्य को स्वयं समझने में अधिकाधिक मतभेद है। जितने मतभेद है और जिन्होंने इस विषयका गहरा विचार अपने अपने निराले तरीकों से किया है, उतने ही दर्शन आज मौजूद है। तत्त्व ज्ञान के विषय में जितने जितने प्रमाण हो सकते हैं, सभी ने देकर अपनी अपनी मान्यता को सिद्ध करने की कोशिश की है। यों बुद्धि की कसौटी ज्यों ज्यों अधिक होने लगी त्यों त्यों यह विषय फैलने लगा, अब अल्प विषय वाला शास्त्र न्याय शास्त्र कहलाता है। प्रत्येक दर्शन मत की जो मान्यताय है उनको प्रमाणादि से जिस शास्त्र में सिद्ध किया जाय वह न्याय शास्त्र कहलाता है। परमत का निरूपण और उसका खंडन भी इस में रहता है। संसार के दर्शनों में जैन दर्शन का विशेष स्थान है। प्रत्येक पदार्थ पर स्वतंत्रता से गहरा विचार इस दर्शन में किया हुआ है। उसमे भी इसकी खास खासियत स्यावाद है। सभी तत्त्व विचारक जब एक दूसरा या एक हो तरफ झुक जाते हैं, एक ही वस्तु के प्रतिपादन मे दूसरी को भूल जाते हैं, भूल ही नहीं जाते वरन् खंडन कर देते है अपने माने हुए, कल्पे हुए विषय ही को एकान्त सत्य कहकर दूसरा सारा झूठा बताते हैं तब जैन दर्शन प्रत्येक विषय का सम्यष्टि से विचार करता है और वह स्याद्वाद के जरिये स्याद्वाद ही इस दर्शन का मूल स्तंभ है। स्याद्वाद का दूसरा नाम है-अनेकान्तवाद या इसे अपेक्षावाद भी कह सकते हैं। एक ही वस्तु को एक ही दृष्टि से देखकर इसे एक ही तरह का प्रमाणित करना, एकान्त है। जैसे आप एक सिपाही देखते है, आप जव एक ही बात पर उतर पड़ते हैं तो आप यही कहेगे वस यह सिपाही ही है। यह हुआ एकान्त पर नहीं, सिपाही नहीं, वह और भी बहुत कुछ है, सिपाही के अलावा वह आदमी भी है, वह किसी का चाचा है, किसी का भाई, किसी का मामा और किसी का कुछ। इस तरह से इसका अनेक अवस्थाओं का जो प्रमाण भूत क्रथन है वह है अनेकान्त । चूंकि यह भिन्न भिन्न विषयों की अपेक्षा से प्रतिपादित होता है, इसीलिये इसे अपेक्षावाद कह देते हैं। इसलिये अगर एक ही बात को एक ही अवस्था से देखकर उस पर निर्णय दिया जायगा तो वह गलत होगा। दर्शनों का मतभेद गहरे विपयों में पड़ता है। आत्मा के गुण धर्म उसका स्वभाव आदि * इसी स्याद्वाद सप्त भगीको श्री शङ्कराचार्य जी खण्डन करने लगे थे किन्तु खण्डन कर नहीं सके कारण सत्यता का खण्डन हो नहीं सकता।

Loading...

Page Navigation
1 ... 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728 729 730 731 732 733 734 735 736 737 738 739 740 741 742 743 744 745 746 747 748 749 750 751 752 753 754 755 756 757 758 759 760 761 762 763 764 765