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जैन-रत्नसार प्रतिभवंभवदुःख हेतुः ॥३३॥ धन्यास्त एव भुवनाधिप ये त्रिसन्ध्य, माराधयन्ति विधिवद्विधुतान्य कृत्याः। भक्त्योल्लसत्पुलक पक्ष्मल देहदेशाः, पादद्वयं तव विभो भुवि जन्मभाजः ॥३४॥ अस्मिन्नपारभव चारिनिधौ मुनीश, मन्ये न मे श्रवण गोचरतां गतोऽसि । आकर्णिते तु तव गोत्र पवित्र मन्त्रे, किं वा विपद्विषधरी सविधं समेति ॥३५॥ जन्मान्तरेऽपि तव पाद युगं न देव, मन्ये मया महितमीहित दानदक्षम् । तेनेह जन्मनि मुनीश ! पराभवानां, जातो निकेतनमहं मथिताशयानाम् ॥३६॥ नूनं न मोह तिमिरावृत लोचनेन, पूर्व विभो सकृदपि प्रविलोकितोऽसि । मर्माविधो विधुरयन्ति हि मामनाः , प्रोद्यत्प्रबन्धगतयः कथमन्यथैते ? ॥३७॥ आकर्णितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि, नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या । जातोऽस्मि तेन जनबान्धव ! दुःखपात्रं, यस्मानियाः प्रतिफलन्ति न भावशून्याः ॥३८॥ त्वं नाथ ! दुःखिजनवत्सल हे शरण्य ! कारुण्यपुण्यवसते वशिनां वरेण्य । भक्त्या नते मयि महेश दयां विधाय, दुःखाङकुरोद्दलन तत्परतां विधेहि ॥३९॥ निःसङ्घयसार शरणं शरणं शरण्य मासाद्य सादितरिपुप्रथितावदातम् । त्वत्पादपङ्कज मपि प्रणिधान बन्ध्यो, वध्योऽस्मि चेद् भुवनपावन ! हा हतोऽस्मि ॥४०॥ देवेन्द्र वन्द्य विदिताखिल वस्तुसार, संसारतारक ! विभो ! भुवनाधिनाथ । त्रायस्व देव करुणाहद मां पुनीहि, सीदन्तमद्य भयदव्यसनाम्बुराशेः ॥४१॥ यद्यस्ति नाथ भवदंघि सरोरुहाणां, भक्तः फलं किमपि सन्तति सञ्चितायाः । तन्मे त्वदेकशरणस्य शरण्य भूयाः,
नोट-इस स्तोत्र के रचयिता श्री सिद्धसेन दिवाकर उपनाम कुमुदचन्द्राचार्य थे। एकदा वृद्धवादीजी से, गोवालियों के सन्मुख शास्त्रार्थ मे पराजित होने पर इन्होंने वृद्धवादीजी से दीक्षा ली। अपनी कवित्व शक्ति की योग्यता से ये उज्जयिनी के राजा विक्रमादित्य के यहां राजगुरु पद से विभूषित किये गये।
राजा विक्रमादित्य को जैनधर्म में प्रविष्ट कराने के लिए राजा के साथ मंदिर में जाकर "कल्याणमंदिर स्तोत्र" की ४८ गाथायें रचना करके शिवपिण्डि में से भगवान् पार्श्वनाथ स्वामी की प्रतिमा प्रगट करी। इस महिमा को देखकर राजा पूर्णरूपेण जैनधर्म का अनुयायी हो गया।
इसको ४ गाथायें भण्डार कर दी गयी है जोकि उपलब्ध नहीं होती और जो उपलब्ध होती हैं वे नूतन हैं।
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