________________
विधि-विभाग
२१६
न वेद विकार | पांच वर्ण दो गंध रस, पांच न जहां प्रचार ||३१|| स्पर्श आठ होते नहीं, जहां न होती देह । जन्म नहीं न जरा जहां, यही दिव्य गुण गेह ||३२|| सिद्ध अचल शाश्वत सकल, पुनरागमन विहीन | चौदराज लोकान्त थिति, लोकोत्तर सुख पीन ||३३|| पर गुण कारकता नहीं, न जहां ग्राहक शक्ति | कर्तृत्वादिक भाव जहं, निज पदमें ही व्यक्ति ॥३४॥ उत्पाद व्यय ध्रुवगुणी, आतम द्रव्य अभंग । गुण पर्यायों में सदा, पूर्ण समाधि सुरंग ||३५|| अस्ति नास्ति आदिक जहां, विद्यमान सतभंग | स्यादवाद सुख सिन्धु में, भेदाभेद तरंग ||३६|| चउगति चक्कर से परे, परम सिङगति सार | सिद्धाचल चढ़ते उसे, पाते हैं नर नार ||३७|| तीर्थराज महिमा अगम, अलख अगोचर रूप । त्रिभुवनमें सबसे बड़ा, यही सर्व सिर भूप ||३८|| जय सुख सागर पुण्डरीक, जय जय श्री भगवान् । जय सुर गणनायक हरी, पूज्य महोदय थान ||३९|| जय जय श्री आनन्द घन, देव चन्द्रपरधाम । नित कवीन्द्र कीर्तित करूं, प्रातः काल प्रणाम ॥४०॥ चैत्य वन्दन के बाद “जंकिंचि०”, “णमोत्थुणं.”, “जावंति चेइयाइं . ", " जावंत केवि साहू ० ", " नमोऽर्हत.” कहकर श्रीसिद्धाचल तीर्थाधिराज का चालीस गाथा का स्तवन पढ़े ।
1
सिद्धाचल तीर्थराज स्तवन गाथा ४०
परम कल्याण हितकारी, विमल गिरिराज जयकारी | विजय जय कीर्तिगुणधारी, विमल गिरिराज जयकारी || ढेर || कल्पतरु काम कुम्भादि, न इसकी शान रखते हैं। समीहित दिव्यफलदाता, विमल गिरिराज जयकारी ॥ परम० १ ॥ यहां आते हुये जन के, अलौकिक भाव होते हैं । अनूठा क्षेत्र उपकारी, बिमल गिरिराज जयकारी ॥ परम० २ ॥ जलाता क्रोध अग्नि है, जगत को पर यहां आते । स्वयं जल राख होता है, बिमल गिरिराज जयकारी || परम० ३ || बड़ा जो मान का पर्वत, जगत को मानता नीचा । वही नीचा यहां होता, विमल गिरिराज जयकारी || परम० १॥ न माया डाकिनीकामी, यहां कुछ जोर चलता है | हमेशा दूर
1