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जैन-रत्नसार
wn ..... .......... नरनाह, भूतप्रेत ग्रह व्यन्तर राह । प्रभु नामें ते न करे पीड, भाजे भावठ भव भय भीड ॥९॥ रोग सोग सभी नासे दूर, अंधकार जिम ऊगे सूर । मूरख पीठी पंडित थाय, प्रभु पसाय दुःख दुरित पुलाय ॥१०॥ दिन दिन जिन शासन उद्योत, जिहां अछे भवसायर पोत । सो सद्गुरु में भेट्यो आज, रलिय रंग सब सीधा काज ॥११॥
॥ ढाल ॥ आज घर अंगन सुरतरु फलियो, चिंतामणि कर कमले मिलियो, उदयो परमानंद करे ॥१२॥ आज दिवस मैं धन्ने गिनियो, जुगपवरागम
जो मैं थुणियो, चन्द्र गच्छ महिमा निलो ए ॥१३॥ कांइ करो पृथ्वीपति | सेवा, कांइ मनावो देवी देवा, चिन्ता आणो काइ मने ॥१४॥ बार बार इक
चित्त भणी जे, श्री जिन कुशल सूरि समरीजे, सरे काज आयास घनें ॥१५॥
संवत् चवद इक्यासी वरसे, मुलक वाहण पुर में मन हरसे, अजिय जिणे| सर पुर भुवणें ॥१६॥ कियो कवित्त ए मंगल कारण, विघन हरण सहु पाप निवारण, कोइ मत संशय धरो मने ॥१७॥ जिम जिम सेवे सुरनर राया, श्री जिन कुशल मुनीसर पाया, जय सागर उवझाय थुणे ॥१८॥ इम जो सद्गुरु गुणअभिनंदे, ऋद्धि समृद्धि, सो चिरनंदे, मन वंछित फल मुझ होवो ए ॥१९॥
जिन कुशल सूरिस्तवन छत्रपती थारे पाय नमें जी, सुरनर सारे सेव । ज्योति थारि जग जागती जी, दुनियां में परतिख देव ॥१॥ हूं तो मोहि रह्यो जी, म्हारा राज दादे रे दरबार । केसर अंबर केवड़ो जी, कस्तूरी कपूर । चोवा चन्दन राय चमेली, भक्ति करूं भरपूर ॥ हुं तो० २॥ पांगुलियां ने पांव समावे, | आंधलियां ने आंख । रूपहीणा ने रूप देवे दादा, पंखहीणा ने पांख ॥ हुं तो० ३ ॥ चंद पटोधर साहिबा रे, श्री जिन कुशल सुरिंद । आठ पहर थांने ओ लगे जी, रंग* धणे राजिंद ॥ हुँ तो० ४ ॥
यह स्तवन सम्बत् १८८१ मे उपाध्याय जय सागरजी महाराज का बनाया हुआ है।
* यह स्तवन खरतरगच्छीय जं० यु० प्र० वृ० भट्टारक श्री पूज्यजी श्री जिन विजय रंग सूरि जी महाराज का बनाया हुआ है।
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