________________
१५४
जैन न्याय विकल्प रह जाता है कि यह बगुलोंकी पंक्ति होनी चाहिए ।
विशेष धर्मों को जानकर यथार्थ वस्तुका निर्णय होना अवाय ज्ञान है। जैसे पंखोंके फड़फड़ाने आदिसे यह निर्णय करना कि यह बगलोंको पंक्ति ही है। अवायसे निर्णीत वस्तुको कालान्तरमें न भूलने में जो ज्ञान कारण है उसे धारणा कहते हैं । जैसे सायंकालके समय सुबहवाली बगुलोंकी पंक्तिको लौटती हुई देखकर जो यह ज्ञान होता है कि 'यह वही बगुलोंकी पंक्ति है जिसे मैंने सुबह देखा था। इस प्रकारके ज्ञानका कारणभूत जो संस्कार रूप ज्ञान है वही धारणा है। इसीसे अकलंकदेवने स्मृति ज्ञानके कारणको धारणा कहा है। और श्वेता. म्बराचार्य हेमचन्दने उसीका अनुसरण करते हुए स्मृतिके हेतुको धारणा कहा है और लिखा है कि संख्यात अथवा असंख्यात काल तक ज्ञानके अवस्थानका नाम धारणा है। अर्थात् अवग्रह, ईहा, और अवाय ज्ञानका काल तो एक-एक अन्त१. तत्त्वार्थ सूत्रके श्वेताम्बर सम्मत सूत्रपाठमें 'अपाय' शब्दका प्रयोग है और दिगम्बर
सम्मत सूत्रपाठमें अवाय शब्द है। अकलंक देवने अपने तत्त्वार्धवार्तिकमें ( १९१५) यह चर्चा उठायी है कि यह शब्द अपाय है अथवा अवाय है ? और उसका यह समाधान किया है कि दोनों ही शब्द ठीक हैं-एकके प्रयोगसे दूसरेका ग्रहण स्वयं हो जाता है। जैसे जब 'यह दाक्षिणात्य नहीं है। इस तरह अपाय अर्थात् निषेध करता है तो 'यह उत्तरीय है' यह अवाय अर्थात् ज्ञान करता है और जब 'यह उत्तरीय है' यह ज्ञान करता है तब 'यह दाक्षिणात्य नहीं है' यह अवाय-निषेध करता है । दोनों परम्पराओंके दार्शनिकोंमें अवाय शब्दका ही प्रयोग पाया जाता है। २. लघीयस्त्रय, का० १-६ । ३. जिनभद्र गणिने अपने विशे० भा० में अविच्युति, वासना, संस्कार और स्मृतिको भी धारणा बतलाया है। उनका अनुसरण करते हुए वादिदेव सूरिने अपने स्याद्वाद रत्नाकर ( पृ० ३४६ ) में विद्यानन्दके 'स्मृतिहेतुर्धारणा' इस लक्षणका खण्डन किया है। उनका कहना है कि-'धारणा ज्ञान स्मृति काल तक नहीं रह सकता, क्योंकि परमागममें छमस्थके उपयोगका काल अन्तमुहूर्त बतलाया है। अतः स्मृतिका साक्षात् कारण ज्ञाताकी एक शक्ति-विशेष है जिसे संस्कार भी कहते हैं । धारणा शान तो उसी समय समाप्त हो जाता है । अतः उसे परम्परासे स्मृतिका हेतु कह सकते हैं ।' किन्तु हेमचन्द्राचार्यने अपनी प्रमाण मीमांसामें 'स्मृतिहेतुर्धारणा' । १।१।२६। इस अकलंकदेव सम्मत लक्षणको ही अपनाकर उसकी व्याख्या करते हुए लिखा है-'यद्यपि पूर्वाचार्योंने अविच्युतिको धारणा कहा है किन्तु उसका अन्तर्भाव अवायमें हो जाता है, क्योंकि अवायकी दीर्घताका नाम ही तो अविच्युति है। अथवा वही अविच्युति स्मृति में हेतु है इसलिए उसका ग्रहण धारणामें हो जाता है। क्योंकि अविच्युतिके बिना अवाय मात्रसे स्मृति नहीं होती। अतः इसके द्वारा स्मृतिके हेतु अविच्युति और संस्कार दोनोंका ग्रहण हो जाता
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org