Book Title: Jain Nyaya
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 337
________________ ३२२ जैन न्याय यह यद्यपि सुनय है, किन्तु व्यवहार में प्रयोजक नहीं है। 'स्यादस्त्येव'-कथंचित् सत्स्वरूप ही है, यह सुनय वाक्य ही व्यवहारका कारण है। वादिदेव 'सूरिने 'स्यादस्त्येव सर्व-सब वस्तु कथंचित् सत्स्वरूप ही है, एक ही उदाहरण दिया है। मल्लिषेण ने भी वादिदेवका ही अनुसरण किया है। __ उक्त मतोंके अनुसार आचार्योंको दो भागोंमें विभाजित किया जा सकता है-एक, जो दोनों प्रकारके वाक्योंके प्रयोगमें कोई अन्तर नहीं मानते । दूसरे, जो अन्तर मानते हैं । अन्तर माननेवालोंमें अकलंकदेव, जयसेन तथा अभयदेव सूरिके नाम उल्लेखनीय है। किन्तु उनमें भी मतैक्य नहीं है। अकलंकदेव प्रमाणवाक्य और नयवाक्य दोनोंमें स्यात्पद और एवकारका प्रयोग आवश्यक मानते हैं। किन्तु जयसेन और अभयदेव केवल नयवाक्यमें ही एवकार. का प्रयोग आवश्यक मानते हैं । अकलंकदेवके मतसे यदि जीव, पुद्गल,धर्म, अधर्मद्रव्य, घट, पट आदि वस्तुवाचक शब्दों के साथ स्यात्कार और एवकारका प्रयोग किया जाता है तो वह प्रमाणवाक्य है। और यदि अस्ति, नास्ति, एक-अनेक आदि धर्मवाचक शब्दोंके साथ उसका प्रयोग किया जाता है तो वह नयवाक्य है । इसके विपरीत जयसेन और अभयदेवके मतसे किसी भी शब्दके साथ, वह शब्द धर्मवाचक हो या धर्मीवाचक हो, यदि एवकारका प्रयोग किया जाता है तो वह नयवाक्य है और यदि एव कारका प्रयोग नहीं किया गया, केवल स्यात् शब्दका प्रयोग किया गया है तो वह प्रमाणवाक्य है । उक्त दो मतोंके सम्बन्ध में दो प्रश्न पैदा होते हैं-क्या धर्मीवाचक शब्द सकलादेशी और धर्मवाचक शब्द विकलादेशी होते हैं ? और क्या प्रत्येक वाक्यके साथ एवकारका प्रयोग आवश्यक होता है ? प्रथम प्रश्नपर विचार--प्रथम प्रश्नपर प्रकाश डालते हुए विद्यानन्द स्वामी. ने लिखा है-'सकलादेशको प्रमाणवाक्य और विकलादेशको नयवाक्य कहा है। सकलादेश और विकलादेश किसे कहते हैं ? किन्हींका कहना है कि अनेकात्मक वस्तुका कथन सकलादेश है और एकधर्मात्मक वस्तुका कथन विकलादेश है। उनके यहां सात प्रकारके प्रमाणवाक्य और सात प्रकारके नयवाक्य नहीं बन सकते; क्योंकि ऐसी स्थितिमें एक-एक धर्मका कथन करने. वाले अस्ति, नास्ति ओर अवक्तव्य रूप तीन भंग सर्वदा विकलादेशो होनेसे नय. १. प्रमाणनयतत्त्वालोक परि० ४.१५ तथा परि० ७-५३ । २. स्याद्वादमंजरी, पृ० १८६। ३. तत्त्वाथश्लोकवार्तिक, पृ० १३७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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