Book Title: Jain Nyaya
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 359
________________ जैन न्याय अग्नि गरम प्रतीत होती है । 'शब्द नित्य है क्योंकि उत्पन्न होता है, जैसे घट' इस अनुमा नमें शब्दका नित्यत्व साध्य, क्योंकि उत्पन्न होता है, इस हेतुसे बाधित है क्योंकि उत्पन्न होने के कारण घट अनित्य होता है, न कि नित्य । यह अनुमान बाधित है। 'मरनेपर धर्मसे दुःख मिलता है; क्योंकि वह पुरुषाधीन है, जैसे अधर्म ।' किन्तु आगममें धर्मको सुखदायक और अधर्मको दुःखदायक माना है। अतः उक्त अनुमानका पक्ष 'मरनेपर धर्मसे दुःख मिलता है' आगमसे बाधित है । 'मृत मनुष्यको खोपड़ी शुद्ध होती है; क्योंकि प्राणीका अंग है जैसे शंख वगैरह। किन्तु लोकमें प्राणीका अंग होनेपर भी कुछ वस्तु पवित्र और कुछ अपवित्र मानी जाती हैं। जैसे गौसे उत्पन्न होनेपर भी दूधको शुद्ध माना जाता है, किन्तु गोमांस को शुद्ध नहीं माना जाता अतः उक्त अनुमान में मनुष्यकी खोपड़ीको शुद्ध सिद्ध करना लोकबाधित है। 'मेरी मां बांझ है; क्योंकि उसके गर्भ नहीं रहता' यह स्ववचन बाधित है क्योंकि बाँझ स्त्री किसीकी मां नहीं हो सकती। ये सब पक्षाभास हैं। जिसका अपने साध्यके साथ अविनाभाव निश्चित हो उसे हेतु कहते हैं। और जो उससे विपरीत हो उसे हेत्वाभास कहते हैं। हेत्वाभासके चार भेद हैंअसिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक और अकिंचित्कर । जिस हेतुकी अन्यथानुपपत्ति प्रमाणसे सिद्ध न हो उसे असिद्ध हेत्वाभास कहते हैं । असिद्ध हेत्वाभासके दो भेद हैं-स्वरूपासिद्ध और सन्दिग्धासिद्ध । शब्द परिणामी है; क्योंकि चक्षुके द्वारा गृहीत होता है' इस अनुमानमें 'चक्षुके द्वारा गृहीत होना' यह हेतु स्वरूपासिद्ध है; क्योंकि शब्द चक्षुका विषय नहीं है । मूढ़ मनुष्य के प्रति 'यहाँ अग्नि है क्योंकि धूम है' इस अनुमानका प्रयोग करनेसे उसके लिए 'धूम' हेतु सन्दिग्धासिद्ध है क्योंकि मूढ़ मनुष्य धूम और भापका भेद नहीं समझता, अत: उसे भापमें भी धूमका सन्देह हो सकता है। अन्य दार्शनिकोंने असिद्ध हेत्वाभासके अन्य भी अनेक भेद किये हैं, उन सबका अन्तर्भाव इन्हीं में हो जाता है। अपने साध्यसे विरुद्ध के साथ जिस हेतुका अविनाभाव निश्चित होता है उसे विरुद्ध हेत्वाभास कहते हैं । जैसे, 'शब्द नित्य है, क्योंकि वह उत्पन्न होता है। इस अनुमानमें 'उत्पन्न होता है' हेतुका अविनाभाव अपने साध्य नित्यत्वके विरोधी अनित्यत्वके साथ निश्चित है; क्योंकि जो उत्पन्न होता है वह प्रनित्य होता है। अतः यह विरुद्ध हेत्वाभास है। इस हेत्वाभासके भी अनेक भेद अन्य दार्शनिकोंने माने हैं। जो हेतु विपक्षमें भी रहता हो उसे अनेकान्तिक हेत्वाभास कहते हैं। इसके दो भेद हैं एक विपक्षमें निश्चित वृत्ति और एक शंकित वृत्ति । जो हेतु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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