Book Title: Jain Nyaya
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 357
________________ प्रमाणाभास जो ज्ञान प्रमाण न होते हुए भी प्रमाण की तरह प्रतीत होता है उसे प्रमाणाभास कहते हैं। साधारण तौरपर मिथ्याज्ञानको प्रमाणाभास कहते हैं। किन्तु कोई भी मिथ्याज्ञान सर्वथा अप्रमाण नहीं होता। प्रमाणता और अप्रमाणताका कारण अविसंवाद और विसंवाद है। 'जहाँ जिस रूपमें अविसंवाद है वहाँ उसी रूपमें प्रमाणता है। जैसे, जिसको आँखें कांच कामल आदि दोषों के कारण खराब हो जाती है उसे आकाशमे दो चन्द्रमा दिखाई देते हैं। यह ज्ञान चन्द्रमाकी संख्याके विषयमें विसंवादी है किन्तु चन्द्रमाके विषयमे अविसंवादी है अर्थात् चन्द्रमाके विषय में सत्य है किन्तु उसकी संख्या के विषय में असत्य है। इसी तरह सभी सम्यग्ज्ञान भी सर्वथा प्रमाण नहीं होते। जैसे, ठोक आँखवालेको भी कभीकभी चन्द्रमा ऐसा प्रतीत होता है कि वह पृथ्वीके निकट है किन्तु यह प्रतीति सत्य नहीं है। अतः जो ज्ञान जिस विषयमे अविसंवादी है वह उस विषयमें प्रमाण है और जिस विषयमे विसंवादी है उस विषयमे अप्रमाण है। शंका-यदि कोई भी मिथ्याज्ञान सर्वथा अप्रमाण नहीं है और सम्यग्ज्ञान सर्वथा प्रमाण नहीं है तो लोक मे जो कुछ ज्ञानोंको प्रमाण और कु.छको अप्रमाण ही माना जाता है, उसकी व्यवस्था कैसे बनेगी ? उत्तर- जिस ज्ञान में संवाद ( सचाई ) को अधिकता होती है उसे लोकमें प्रमाण माना जाता है और जिसमें विसंवाद ( मिथ्यापन )की अधिकता होती है उसे लोक में अप्रमाण माना है। वास्तवमें प्रमाण और अप्रमाण की व्यवस्था बाह्य पदार्थकी अपेक्षासे है। जो ज्ञान असद्वस्तुको सत्रूपसे जानता है वह प्रमाणाभास है, जैसे सीपमें होनेवाला चाँदीका ज्ञान । और जो ज्ञान सामने विद्यमान वस्तु को जैसाका तैसा जानता है वह प्रमाण है जैसे सोपमे होनेवाला सीपका ज्ञान । ये दोनों ही ज्ञान स्वरूपकी अपेक्षासे प्रमाण ही हैं; क्योकि सभी ज्ञानोंका जो स्वसंवेदन होता है वह प्रमाण है । आशय यह है कि ज्ञान स्वको भी जानता है और बाह्य पदार्थको भी जानता १. 'प्रत्यक्षाभं कथञ्चित् स्यात् प्रमाणं तैमिरादिकम् । __यद्यथैवाविसंवादि प्रमाणं तर था मतम् ॥२२॥- लघीय० । २, 'तत्प्रकर्षापेक्षया व्यपदेशव्यवरथा'--अष्टश०, अष्टस०, पृ० २७६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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