Book Title: Jain Nyaya
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 355
________________ जैन न्याय ३४० ठीक नहीं है । अपेक्षाके भेदसे एक वस्तुमें अनेक कारक बन सकते हैं । जैसे, 'वृक्ष खड़ा है, वृक्षसे फल गिरा, वृक्षको देखो' इत्यादि वाक्योंमें एक ही वृक्ष कर्ता, अपादान, कर्म आदि कारकोंका आधार होता है । इसी प्रकार एक ही प्रमाण में प्रमाणरूपता और फलरूपता भी बन जाती है । ----- नैयायिक -- अज्ञाननिवृत्ति ज्ञानरूप ही है अतः यह अपना ही कार्य नहीं हो सकतो, ऐसी स्थिति में अज्ञाननिवृत्तिको प्रमाणका फल कैसे माना जा सकता है ? जैन- ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि स्वार्थग्रहण के व्यापार रूप उपयोगको प्रमाण कहते हैं और स्व तथा अर्थनिश्चय रूप परिणतिका नाम अज्ञाननिवृत्ति है । अतः अज्ञाननिवृत्ति प्रमाणका फल है । यदि आप अज्ञाननिवृत्तिको ज्ञानरूप ही मानते हैं तो उसे धर्मिरूप मानते हैं अथवा धर्मरूप मानते हैं ? यदि अज्ञाननिवृत्ति धर्मिरूप है तो उसका धर्म क्या है ? यदि ज्ञान उसका धर्म है तो अज्ञाननिवृत्ति धर्मी हुई और ज्ञान उसका धर्म हुआ । किन्तु यह उचित नहीं है; क्योंकि अज्ञाननिवृति ज्ञानके आश्रित है । अतः वह धर्मीरूप नहीं हो सकती । क्योंकि जो पराश्रित होता है वह धर्मरूप ही होता है । इसलिए पराश्रित होनेमे अज्ञाननिवृत्ति धर्मरूप ही है । और जब वह धर्मरूप है तो 'अज्ञाननिवृत्ति ज्ञानरूप ही है' इस प्रकार अभेद नहीं हो सकता, किन्तु 'ज्ञानका धर्म अज्ञाननिवृत्ति है' इस प्रकार भेद ही हो सकता है । क्योंकि धर्म और धर्मी में उपचारसे ही अभेदका कथन किया जा सकता है । इसी प्रकार अज्ञाननिवृत्ति कार्यरूप है अथवा अ-कार्यरूप है ? यदि वह किसीका कार्य नहीं है तो सर्वत्र सर्वदा उसकी सत्ता रहनेसे सभी सर्वदर्शी हो जायेंगे । यदि यह कार्यरूप है तो उसका कारण कौन है— प्रमाणरूपसे माना गया ज्ञान अथवा कोई अन्य ? यदि कोई अन्य उसका कारण है तो प्रमाणरूपसे माने गये ज्ञानकी उत्पत्ति से पहले और उसके बादमें भी अज्ञाननिवृत्तिकी उत्पत्तिका प्रसंग उपस्थित होता है । इस प्रसंगसे बचने के लिए यदि प्रमाणसे हो अज्ञान निवृतिको उत्पत्ति मानते हैं तो यहो सिद्ध होता है कि अज्ञाननिवृत्ति प्रमाणका फल है | अतः प्रमाणका धर्म होनेसे अज्ञाननिवृत्तिरूप फल प्रमाणसे अभिन्न है और हान, उपादान आदि फल प्रमाणसे भिन्न है । शंका- जैसे स्वार्थग्राही ज्ञान अज्ञाननिवृत्तिरूपसे परिणमन करता है वैसे ही हान, उपादान रूपसे भी परिणमन करता है । तब हान, उपादान भिन्न फल क्यों है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384