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जैन न्याय
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ठीक नहीं है । अपेक्षाके भेदसे एक वस्तुमें अनेक कारक बन सकते हैं । जैसे, 'वृक्ष खड़ा है, वृक्षसे फल गिरा, वृक्षको देखो' इत्यादि वाक्योंमें एक ही वृक्ष कर्ता, अपादान, कर्म आदि कारकोंका आधार होता है । इसी प्रकार एक ही प्रमाण में प्रमाणरूपता और फलरूपता भी बन जाती है ।
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नैयायिक -- अज्ञाननिवृत्ति ज्ञानरूप ही है अतः यह अपना ही कार्य नहीं हो सकतो, ऐसी स्थिति में अज्ञाननिवृत्तिको प्रमाणका फल कैसे माना जा सकता है ?
जैन- ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि स्वार्थग्रहण के व्यापार रूप उपयोगको प्रमाण कहते हैं और स्व तथा अर्थनिश्चय रूप परिणतिका नाम अज्ञाननिवृत्ति है । अतः अज्ञाननिवृत्ति प्रमाणका फल है ।
यदि आप अज्ञाननिवृत्तिको ज्ञानरूप ही मानते हैं तो उसे धर्मिरूप मानते हैं अथवा धर्मरूप मानते हैं ? यदि अज्ञाननिवृत्ति धर्मिरूप है तो उसका धर्म क्या है ? यदि ज्ञान उसका धर्म है तो अज्ञाननिवृत्ति धर्मी हुई और ज्ञान उसका धर्म हुआ । किन्तु यह उचित नहीं है; क्योंकि अज्ञाननिवृति ज्ञानके आश्रित है । अतः वह धर्मीरूप नहीं हो सकती । क्योंकि जो पराश्रित होता है वह धर्मरूप ही होता है । इसलिए पराश्रित होनेमे अज्ञाननिवृत्ति धर्मरूप ही है । और जब वह धर्मरूप है तो 'अज्ञाननिवृत्ति ज्ञानरूप ही है' इस प्रकार अभेद नहीं हो सकता, किन्तु 'ज्ञानका धर्म अज्ञाननिवृत्ति है' इस प्रकार भेद ही हो सकता है । क्योंकि धर्म और धर्मी में उपचारसे ही अभेदका कथन किया जा सकता है ।
इसी प्रकार अज्ञाननिवृत्ति कार्यरूप है अथवा अ-कार्यरूप है ? यदि वह किसीका कार्य नहीं है तो सर्वत्र सर्वदा उसकी सत्ता रहनेसे सभी सर्वदर्शी हो जायेंगे । यदि यह कार्यरूप है तो उसका कारण कौन है— प्रमाणरूपसे माना गया ज्ञान अथवा कोई अन्य ? यदि कोई अन्य उसका कारण है तो प्रमाणरूपसे माने गये ज्ञानकी उत्पत्ति से पहले और उसके बादमें भी अज्ञाननिवृत्तिकी उत्पत्तिका प्रसंग उपस्थित होता है । इस प्रसंगसे बचने के लिए यदि प्रमाणसे हो अज्ञान निवृतिको उत्पत्ति मानते हैं तो यहो सिद्ध होता है कि अज्ञाननिवृत्ति प्रमाणका फल है | अतः प्रमाणका धर्म होनेसे अज्ञाननिवृत्तिरूप फल प्रमाणसे अभिन्न है और हान, उपादान आदि फल प्रमाणसे भिन्न है ।
शंका- जैसे स्वार्थग्राही ज्ञान अज्ञाननिवृत्तिरूपसे परिणमन करता है वैसे ही हान, उपादान रूपसे भी परिणमन करता है । तब हान, उपादान भिन्न फल क्यों है ?
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