Book Title: Jain Nyaya
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 354
________________ प्रमाणका फळ प्रमाणको हो फल मानना ठीक नहीं है; क्योंकि करणरूपता और फलरूपता ये दोनों धर्म परस्पर में विरोध हैं, अतः एक वस्तुमें एक साथ नहीं रह सकते । इसलिए प्रमाण और फलमे भेद मानना ही श्रेष्ठ है । उदाहरणके लिए विशेषणज्ञान प्रमाण है और विशेष्यज्ञान फल है इन दोनोंमें अभेद कैसे हो सकता है; क्योंकि दोनों ज्ञानोंकी उत्पादक सामग्री भिन्न है और विषय भो विभिन्न है । विशेषण ज्ञानकी उत्पत्ति विशेषण के साथ इन्द्रियसन्निकर्षरूप सामग्रीसे होती है और विशेष्य ज्ञानको उत्पत्ति विशेष्य के साथ इन्द्रिय सन्निकर्ष रूप सामग्री से होती है । तथा विषय भेद तो दोनों ज्ञानोंमें स्पष्ट ही है; क्योंकि एकका विषय विशेषण है और एकका विषय विशेष्य है । १. न्या० कु० ब०, पृ० २०६ । उत्तर पक्ष-- जैनोंका कहना है कि प्रमाण और फलमें भेद सिद्ध करनेके लिए जो 'कारक' हेतु दिया है, वह ठीक नहीं है; क्योंकि 'कारक' हेतुसे आप ( नैयायिक) प्रमाण और फलमे कथंचित् भेद सिद्ध करना चाहते हैं अथवा सर्वथा भेद सिद्ध करना चाहते है ? यदि कथंचित् भेद सिद्ध करना चाहते हैं तो हमें इष्ट हो है; क्योंकि अज्ञाननिवृत्ति प्रमाणका धर्म है और हान, उपादान प्रमाणके कार्य हैं, अत: वे प्रमाणसे कथंचित् भिन्न हैं। प्रमाणका फल दो प्रकारका होता है- -- एक प्रमाणसे भिन्न और एक अभिन्न । प्रमाणका अभिन्न फल अज्ञाननिवृत्ति है, क्योंकि वह प्रमाणका धर्म है। जो जिसका धर्म होता है वह उससे अभिन्न होता है जैसे दीपकका स्वपर प्रकाशक रूप धर्म दीपक से अभिन्न है । हमी प्रकार स्वरूप और पररूपसम्बन्धी अज्ञानको दूर करनेरूप अज्ञाननिवृत्ति प्रमाणका धर्म है । अतः वह उससे अभिन्न हैं । किन्तु धर्म और धर्मो मे सर्वथा भेद अथवा सर्वथा अभेद माननेपर धर्म धर्मियन नहीं बनता; क्योंकि जिनमें सर्वथा भेद होता है, उनमें धर्म- धमिभाव नही होता । जैसे सह्य और विन्ध्य पर्वतमे सर्वथा भेद है अतः उनमे धर्म- धर्मिभाव नहीं है इसी प्रकार जिनमें सर्वथा अभेद होता है उनमें भी धर्म- धर्मिभाव नहीं होता । अतः कथंचित् भेद मानना ही श्रेष्ठ है । साधकतम होनेसे ज्ञान प्रमाण है और अज्ञाननिवृत्तिरूप होनेसे फल है । ज्ञानका स्व और परको ग्रहण करनेका व्यापार हो उसका साधकतमपना है । अपने कारणोंसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान स्व और अर्थको ग्रहण करनेरूप व्यापार करता हुआ ही स्वार्थब्यवसाय रूपसे परिणमन करता है । अतः कथंचित् अभेद होते हुए भी प्रमाण और फल्में कारण-कार्यभाव बन जाता है। इसलिए नैयायिकका यह कहना कि 'एक वस्तुमें एक साथ करणरूपता और फलरूपता नहीं बनती', । Jain Education International ३३९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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