Book Title: Jain Nyaya
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 349
________________ १३४ जैन न्याय व्यवहार नय-संग्रहनयके द्वारा गृहीत अर्थोंका विधिपूर्वक विभाग करनेवाला व्यवहारनय है। जैसे परसंग्रह 'सव सत् है' ऐसा ग्रहण करता है, व्यवहारनय उसके भेदोंको ग्रहण करता है, वह सत् द्रव्य और पर्यायरूप है। जैसे अपरसंग्रहनय सब द्रव्योंका द्रव्यरूपसे और सर्वपर्यायोंका पर्यायरूपसे संग्रह करता है। व्यवहारनय उसका विभाग करता है-द्रव्य जीवादिके भेदसे छह प्रकार है । पर्याय सहभावी और क्रमभावीके भेदसे दो प्रकार है । इस प्रकार व्यवहारमय तबतक भेद-प्रभेद करता है जबतक भेदकी सम्भावना है। परसंग्रहके पश्चात् और ऋजसूत्रसे पहले तक अपरापरसंग्रह और व्यवहारका प्रपंच चलता है। क्योंकि सभी वस्तु सामान्य विशेषात्मक है। किन्तु इससे व्यवहारको नैगमनयके समान नहीं समझना चाहिए क्योंकि व्यवहारनय तो केवल संग्रहनयके विषयमें भेद-प्रभेद करता है। किन्तु नैगमनय गौणता और मुख्यतासे सामान्य और विशेष दोनोंको ग्रहण करता है। काल्पनिक द्रव्यपर्यायके विभागको माननेवाला नय व्यवहाराभास है। ऋजुसूत्र नय-ऋजुसूत्रनय द्रव्यको गोण करके क्षण-क्षणमें नष्ट होनेवाली पर्यायको ही मुख्यरूपसे ग्रहण करता है। पर्यायोंमें भी भूतपर्यायें तो नष्ट हो चुकी, और भाविपर्यायें अभी उत्पन्न हो नहीं हुई हैं । अतः लोक-व्यवहार न विनष्टसे चल सकता है और न भावीसे। इसलिए वर्तमान क्षणवर्ती पर्यायको ही यह नय विषय करता है। और त्रिकालातीत द्रव्यको विवक्षा नहीं करता। बौद्धोंका क्षणिकवाद इसी नयदृष्टिके अन्तर्गत समाविष्ट होता है। किन्तु बोद्धदर्शन पर्यायों में अनुस्यूत अन्वयी द्रव्यको नहीं मानता। इसलिए वह ऋजुसूत्र नयाभास है। तत्त्वार्थवार्तिक ( पृ० ९६-९७ ) में अकलंकदेवने अनेक उदाहरण देकर ऋजुसूत्र नयकी दृष्टिको स्पष्ट किया है। जिस समय प्रस्थसे धान्य आदि मापा जाता है उसी समय उसे प्रस्थ कहते हैं । वर्तमानमें अतीत और अनागत धान्यका माप तो सम्भव नहीं है। तथा इस नयकी दृष्टिसे कुम्भकार व्यवहार नहीं हो सकता; क्योंकि शिविक आदि पर्यायोंके निर्माण तक तो उसे कुम्भकार कह नहीं सकते और घटपर्यायके समय अपने १. सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवातिक, १३३ । त० श्लो० वा०, पृ० २७१ । लघीयस्त्रय का० ४२ तथा ७० । २, सर्वार्थसिद्धि, तत्वार्थवा०, १।३३। त० श्लो० वा०, पृ० २७१-२७२ । लघीयत्रय का० ४३ तथा ७१ | न्या० कु० च०, पृ० ६३६, ७६२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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