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• जैन न्याय
निगम का अर्थ संकल्प भी होता है। अतः अर्थके संकल्प मात्रका ग्राही नैगम नय है । यह नैगम नयका दूसरा अर्थ है । जैसे, प्रस्थ (प्राचीन समयका धान्यमापक पात्रविशेष) बनाने के निमित्त जंगलसे लकड़ी लेनेके लिए कुठार लेकर जानेवाले किसी पुरुषसे पूछनेपर कि, आप कहाँ जा रहे हैं ? वह उत्तर देता है कि, प्रस्थके लिए । तथा पानी, इंधन वगैरह लाने में लगे हुए पुरुषसे जब कोई पूछता है किआप क्या कर रहे हैं ? तो वह उत्तर देता है कि रसोई बना रहा हूँ। किन्तु उस समय न तो कहीं प्रस्थ है और न रसोई । किन्तु उन दोनोंका प्रस्थ और रसोई बनानेका संकल्प है, उस संकल्पमें ही वह प्रस्थ या रसोईका व्यवहार करता है । अतः अनिष्पन्न अर्थक संकल्प मात्रका ग्राहक नैगमनय है।
इस नैगम नयके अनेक भेद बतलाये हैं । मूल भेद तीन है-पर्यायनैगम, द्रव्यनैगम और द्रव्यपर्यायनैगम । पर्यायनगमके तीन भेद है, द्रव्यनगमके दो भेद हैं और द्रव्यपर्यायनैगमके चार भेद हैं । इस तरह नैगमनयके नौ भेद हैं ।
किसी वस्तु में दो अर्थपर्यायोंको गौण और मुख्यरूपसे जानने के लिए ज्ञाताका जो अभिप्राय होता है वह अर्थपर्यायनैगमनय है। जैसे सशरीर जीवका सुखसंवेदन प्रतिक्षण नाशको प्राप्त हो रहा है। यहाँ प्रतिक्षण उत्पादव्ययरूप अर्थपर्याय तो विशेषणरूप होनेसे गौण है और संवेदनरूप अर्थपर्याय विशेष्य होनेसे मुख्य है। सुख और ज्ञानको परस्परमें सर्वथा भिन्न मानना या आत्मासे उन्हें सर्वथा भिन्न मानना अर्थपर्याय नैगमाभास है ।
एक वस्तुमें गौण मुख्यरूपसे दो व्यंजन पर्यायोंको जाननेका अभिप्राय व्यंजनपर्यायनैगमनय है। जैसे आत्मामें सत् चैतन्य है। यहाँ सत्त्वका गौण रूपसे और चैतन्यका प्रधानरूपसे ग्रहण है। सत्ता और चैतन्यको परस्परमें आत्मासे सर्वथा भिन्न माननेका अभिप्राय व्यंजनपर्यायनैगमाभास है। अर्थपर्याय और व्यंजनपर्यायको गौण और मुख्यरूपसे जाननेका अभिप्राय अर्थव्यंजनपर्यायनैगम है। जैसे धर्मात्मा पुरुषका सुखी जीवन है। सुख और जीवनको सर्वथा भिन्न माननेका अभिप्राय अर्थव्यंजनपर्याय नैगमाभास है। इस तरह पर्याय नैगमनयके तीन भेद है।
सम्पूर्ण वस्तु सद्रव्य रूप है इस प्रकारके अभिप्रायको शुद्ध द्रव्य नैगमनय कहते हैं। और सत् और द्रव्यको सर्वथा भिन्न माननेका अभिप्राय शुद्ध द्रव्य
१. सर्वार्थसि०, तत्त्वार्थवार्तिक, त० श्लो० वा०, सूत्र-१।३३ । २. त० श्लो० वा०,
पृ० २६६-२७०।
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