Book Title: Jain Nyaya
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 348
________________ श्रुतके दो उपयोग ३३३ नैगमाभास है। द्रव्य गुणवान् या पर्यायवान् है इस प्रकारके अभिप्रायको अशुद्ध द्रव्यनगमनय कहते हैं । द्रव्य और गुणका या द्रव्य और पर्यायका सर्वथा भेद मानना अशुद्ध द्रव्य नैगमाभास है । ये दो द्रव्य नैगमनयके भेद हैं। 'इस संसारमें सुख सत्स्वरूप होता हुआ क्षणिक हैं' ऐसा अभिप्राय शुद्ध द्रव्यार्थपर्यायनैगम है; क्योंकि यहाँ सत्सना शुद्ध द्रव्य है और सुख अर्थपर्याय है। विशेषणरूप शुद्ध द्रव्यको गौण रूपसे और विशेष्यरूप अर्थपर्याय सुखको प्रधानरूपसे यह नय जानता है। सुखरूप अर्थपर्यायसे सत्को सर्वथा भिन्न मानना नैगमाभास है। 'संसारी जीव क्षण भर तक सुखो है' इस प्रकारका निश्चय अशुद्ध द्रव्यार्थपर्याय नैगमनय है। नय सुखरूप अर्थपर्यायको गौण रूपसे और अशुद्धद्रव्यसंसारी जीवको प्रधानरूपसे जानता है । सुख और जीवका सर्वथा भेद मानना नयाभास है। चैतन्यपना सत्स्वरूप है इस प्रकारका अभिप्राय शुद्ध द्रव्य व्यंजनपर्याय नैगमनय है। यहां चैतन्य व्यंजनपर्याय है और सत् शुद्ध द्रव्य है। यह नय मुख्य और गौण रूपसे दोनोंको जानता है। 'मनुष्य गुणवान् है' यह अशुद्धद्रव्य व्यंजनपर्यायनैगमनयका उदाहरण है। इसमें गुणवान् अशुद्धद्रव्य है और मनुष्य व्यंजनपर्याय है। इस प्रकार द्रव्यपर्याय नैगमनयके चार भेद हैं । ___ संग्रह नय-अपनी जातिका विरोध न करके सामान्यके द्वारा उन-उन पदार्थोंका संग्रह करनेवाला संग्रहनय है । जैसे 'सत्' कहनेसे सत्ता सम्बन्धके योग्य द्रव्य, गुण, कर्म आदि सभी सद्व्यक्तियोंका ग्रहण हो जाता है। द्रव्य कहनेसे सभी द्रव्योंका ग्रहण हो जाता है। संग्रहनयके दो भेद हैं-परसंग्रह और अपरसंग्रह। सत्तामात्र शुद्ध द्रव्यका ग्राही परसंग्रह है। किन्तु जो भेदोंका निराकरण करके केवल सत्ताद्वैतका ही ग्राही है वह परसंग्रहाभास है । पुरुषाद्वैत, ज्ञानाद्वैत, शब्दाद्वैत आदि अद्वैतवाद परसंग्रहाभासके ही अन्तर्गत हैं। परसंग्रह नयके द्वारा गृहीत वस्तुके विशेष अंशोंको ग्रहण करनेवाला अपरसंग्रह नय है। जैसे सत्के भेद द्रव्य और पर्याय हैं। अतः सम्पूर्ण द्रव्योंमें व्याप्त द्रव्यत्व अपरसंग्रह नयका विषय है। इसी तरह सम्पूर्ण पर्यायोंमें व्याप्त पर्यायत्व भी अपरसंग्रह नयका विषय है। इस तरह यह नय अवान्तरभेदोंका एकत्वरूपसे संग्रह करता है, किन्तु प्रतिपक्षी भेदोंका निराकरण नहीं करता। १. सर्वार्थसिद्धि तथा तत्त्वार्थवार्तिक, ११३३ । त० श्लो० वा०, पृ० २७० । लघीयस्त्रय का०३८ तथा ६६। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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