Book Title: Jain Nyaya
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 350
________________ श्रुतके दो उपयोग ३३५ अवयवोंसे स्वयं ही घट बन जाता है । जो कहींसे आकर बैठ चुका है वह यह नहीं कह सकता कि मैं अभी ही आ रहा हूँ; क्योंकि उस समय आगमनक्रिया नहीं हो रही है । किसी से 'कहाँ रहते हो ?' ऐसा पूछनेपर इस नयकी दृष्टिसे जिन आकाश प्रदेशों में वह स्थित है वही उसका निवासस्थान है अतः ग्रामनिवास, गृहनिवासका व्यवहार सम्भव नहीं है । शब्दनय - जो नय काल, कारक, लिंग, संख्या आदिके भेदसे अर्थको भेदरूप १ मानता है वह शब्द है । चूँकि यह नय शब्दको प्रधानतासे उसके वाच्यार्थको भेदरूप मानता है इसलिए इसे शब्दनय कहते हैं । व्यवहारनय तो काल कारक आदिका भेद होनेपर भी अर्थभेद स्वीकार नहीं करता, अतः शब्दनयकी दृष्टि में वह ठीक नहीं है । जैसे—— अमुक मनुष्यके विश्वदृश्वा (जो विश्वको देख चुका है) पुत्र पैदा होगा । जो अभी पैदा ही नहीं हुआ वह विश्वको कैसे देख सकता है । अतः अतीत और अनागतका जो सामानाधिकरण्य व्यवहारमें जोड़ा जाता है वह शब्दन की दृष्टिसे ठीक नहीं है । इसी तरह लिंगभेद, कारकभेदसे शब्दनय अर्थ - भेदको मानता है । वह लोकव्यवहार और व्याकरण - शास्त्र के विरोधकी चिन्ता नहीं करता । सारांश यह है कि इस नयके अभिप्रायानुसार कालभेद होनेपर भी अर्थका भेद न माननेपर बड़ा दोष आता है—अतीत रावण और भविष्य में होनेवाला शंख चक्रवर्ती भी एक हो जायेंगे। इसी तरह वैयाकरण लोग 'पुष्य तारा है' यहाँ लिंगभेद होनेपर भी दोनों शब्दोंका एक ही अर्थ मानते हैं । किन्तु पुष्य शब्द पुल्लिंग है और तारा शब्द स्त्रीलिंग है । यदि विभिन्न लिंगवाले शब्दोंका एकार्थ माना जायेगा तो पुल्लिंग पट शब्द और स्त्रीलिंग कुटी शब्द भी सार्थक हो जायेंगे । इसी प्रकार अन्यत्र भी समझना चाहिए । समभिरूढनय - शब्दभेदसे अर्थभेद माननेवाला नय समभिरूढ़नय है । जैसे इन्द्र, शक्र और पुरन्दर शब्द इस नयकी दृष्टि में भिन्न-भिन्न अर्थके वाचक हैं | अर्थात् स्वर्गका स्वामी आनन्द करनेसे इन्द्र है, शक्तिशाली होनेसे शक्र है और पुरोंका विदारण करनेसे पुरन्दर है । इस प्रकार यह नय शब्दभेदसे एक ही इन्द्रको भेदरूप स्वीकार करता है । शब्दनय तो केवल काल, कारक, लिंग, संख्या आदिके भेदसे अर्थभेद मानता था, पर्यायभेदसे नहीं । उसके मत से इन्द्र, शक्र और पुरन्दर शब्दके अर्थ में भेद, * १. सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवा०, ११३३ | त० श्लो० वा०, पृ० २७२-२७३ । लघीयस्त्रय का० ४४ तथा, ७२। न्या० कृ० च०, पृ० ७६४? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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