Book Title: Jain Nyaya
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 346
________________ ३३१ श्रुतके दो उपयोग "तित्थयस्वयणसंगहविसेसपत्थारमूलवागरणी । दव्वटिओ य पज्जवणओ य सेसा वियप्पा सिं ॥३॥" तीर्थकरोंके वचनोंको सामान्य और विशेषरूप राशियोंके मूल प्रतिपादक द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नय हैं । बाकीके सब इन दोनोंके ही भेद हैं । सारांश . यह है कि अनेकान्तका निरूपण नयोंके द्वारा ही हो सकता है । नय अनेक है; क्योंकि वस्तु अनेक धर्मात्मक है और एक-एक धर्मका ग्राहक नय है । परन्तु उन सबका समावेश संक्षेपमें दो नयोंमें हो जाता है। वे दो नय हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक । द्रव्यार्थिक नयके तीन भेद हैं-नैगम, संग्रह और व्यवहार । तथा पर्यायाथिक नयके चार भेद हैं-ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत । इन सात नयोंमेंसे आदिके चार नयोंको अर्थनय कहते हैं, क्योंकि वे अर्थकी प्रधानतासे वस्तुका ग्रहण करते हैं और शब्दप्रधान होनेसे शेष तीन नयोंको शब्दनय कहते हैं। ऐसा ही अकलंकदेवने लघीयस्त्रयमें कहा है "चत्वारोऽर्थनया ह्येते जीवाद्यर्थव्यपाश्रयात् । त्रयः शब्दनयाः सत्यपदविद्यां समाश्रिताः ॥७२॥" नैगमनय-'नैकं गमः नैगमः' अर्थात् जो धर्म और धर्मीमें-से एकको हो नहीं जानता है, किन्तु गौण और प्रधान रूपसे धर्म और धर्मी दोनोंका विषय : करता है उसे नैगम नय कहते हैं । जैसे जीव अमूर्त है, ज्ञाता, द्रष्टा, सूक्ष्म, कर्ता, भोक्ता और परिणामी नित्य है। यहां प्रधान रूपसे जीवत्वका निरूपण करनेपर सुखादि धर्म गौण हो जाते हैं। और सुखादि गुणोंका निरूपण करनेपर आत्मा गौण हो जाता है। और धर्म-धर्मीको या गुण-गुणीको अत्यन्त भिन्न मानना नैगमाभास है। जैनधर्मके अनुसार गुण-गुणी, अवयव-अवयवी, क्रिया-कारक, और जाति-व्यक्तिमें अत्यन्त भेद माननेवाला न्याय-वैशेषिक दर्शन नैगमाभासी है। तथा चैतन्य और सुखादिमें अत्यन्त भेदवादी सांख्य भी नैगमाभासी है। इन दोनों दर्शनोंने निर. पेक्ष तत्त्वस्वरूपका जो विवेचन किया है वह नैगमनयको दृष्टिसे यथार्थ होते हुए भी निरपेक्ष होनेके कारण अयथार्थ है; क्योंकि नैगम सत्यांश है। पूर्ण सत्य . नहीं है। १. लघीयस्त्रय स्वोपशवृत्तिसहित का० ३६ तथा ६८ । न्या० कु० च०, पृ० ६२२ तथा ७८८-७८६ । त० श्लो० वा०, पृ० २६६ । धवला टीका, पु०, १, पृ० ८४ । जयधवला टी०, भा०१, पृ० २२१ । २ सिद्धि वि० टी०, पृ० ६७४-६७६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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