Book Title: Jain Nyaya
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 338
________________ श्रुतके दो उपयोग ३२३ वाक्य कहे जायेंगे और अनेक धर्मों के प्रतिपादक शेष चार भंग सर्वदा सकला. देशी होनेसे प्रमाणवाक्य कहलायेंगे । किन्तु तीन नयवाक्य और चार प्रमाणवाक्य. की स्थिति सिद्धान्तविरुद्ध है।' 'किन्हींका कहना है कि ध/मात्रका कथन सकलादेश है और धर्ममात्रका कथन विकलादेश है। किन्तु यह कथन भी ठीक नहीं है; क्योंकि सत्त्व आदि किसी भी धर्मके बिना धर्मीका कथन असम्भव है। इसी तरह किसी धर्मीसे सर्वथा निरपेक्षवाले धर्ममात्रका कथन भी नहीं किया जा सकता। शंका-'स्यात् जीव एव' इस प्रकारसे धर्मीमात्रका कथन किया जा सकता है। इसी तरह ‘स्यादस्त्येव' रूपसे धर्ममात्रका कथन किया जा सकता है ? समाधान-ऐसा कहना ठीक नहीं है, जीवशब्दसे जीवत्व धर्मात्मक जीववस्तुका कथन किया जाता है और अस्तिशब्दसे किसी विशेष्यमें विशेषण रूपसे प्रतीयमान अस्तित्व का कथन किया जाता है। इस तरह विद्यानन्दके मतानुसार प्रत्येक शब्द वस्तुके किसी एक धर्मको लेकर व्यवहृत होता है । 'तत्त्वार्थवातिकमें 'सकलादेश'का लक्षण करते हुए अकलंकदेवने भी प्रकारान्तरसे उक्त बात ही कही है। वे लिखते है-'जब एक अखण्ड वस्तु एक गुणके द्वारा कही जाती है तो वह सकलादेश है; क्योंकि गणके बिना गुणीका विशेष रूपसे ज्ञान करना सम्भव नहीं है।' फिर भी अकलंकदेवने अपने लघीयस्त्रयके स्वोपज्ञ भाष्यमें जो धर्मीवाचक शब्दोंको सकलादेशी और धर्मवाचक शब्दोंको विकलादेशी कहा है वह एक दृष्टिसे उचित ही है। यह ठीक है कि प्रत्येक शब्द वस्तुके किसी-न-किसी धर्मको लेकर व्यवहृत होता है। किन्तु कुछ शब्द वस्तुके अर्थमें इतने रूढ़ हो जाते हैं कि उनसे किसी एक धर्मविशिष्ट वस्तुका बोध न होकर अनेक धर्मात्मक सम्पूर्ण वस्तुका ही बोध होता है । जैसे, यद्यपि जीवशब्द जीवनगुणकी अपेक्षासे व्यवहत होता है किन्तु जीवशब्दको सुननेसे केवल जीवनगुणका बोध न होकर जीवद्रव्यका ही बोध होता है। इसी तरह पुद्गल, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश आदि वस्तुवाचक शब्दोंके विषयमें भी जानना चाहिए । संसारमें बोलचालके व्यवहारमें आनेवाले पुस्तक, घट, वस्त्र आदि शब्द भी वस्तु का ही बोध कराते हैं । किन्तु इस विषयमें भी एकान्तवादी दृष्टिकोण उचित नहीं है ; क्योंकि शब्दकी प्रवृत्ति वक्ताकी विवक्षाके अधीन है। वक्ता धर्मिवाचक शब्दके द्वारा एक धर्मका भी प्रतिपादन कर सकता है और एक धर्मके द्वारा पूर्ण वस्तुका भी प्रतिपादन कर सकता है। जैसे जीवशब्द जीवनगुण १. पृ० २५२, वार्तिक १४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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