Book Title: Jain Nyaya
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 308
________________ परोक्षप्रमाण २९३ भी हैं। शेष भेद भी प्रायः ऐसे नहीं हैं जो दिगम्बर परम्पराको मान्य न हो सकें, किन्तु उन भेदोंका उल्लेख दिगम्बर साहित्यमें नहीं है। चूंकि ये भेद श्रुतज्ञान सम्बन्धी विविध बातोपर प्रकाश डालते हैं अत: उनका स्वरूप यहाँ दिया जाता है। अक्षर वर्णको कहते हैं। उसके तीन भेद है-संज्ञाक्षर, व्यंजनाक्षर और लब्ध्यक्षर । आकाररूप अक्षरको संज्ञाक्षर कहते हैं। उच्चारित शब्दको व्यंजनाक्षर कहते हैं । और अक्षरको लब्धिको लब्ध्यक्षर कहते हैं । अर्थात् इन्द्रिय और मनके निमित्तसे जो श्रु तानुसारी ज्ञान होता है तथा जो अक्षरावरणकर्मका क्षयोपशम होता है, उन दोनोंको लब्ध्यक्षर कहते हैं। इन तीन प्रकारके अक्षरोंमें संज्ञाक्षर और व्यंजनाक्षर तो द्रव्यश्रुत हैं क्योंकि ये दोनों भाव श्रुतमें कारण होते हैं और लब्ध्यक्षर भाव त हैं। शंका-अक्षरलाभ परोपदेशपूर्वक होता है, अतः संज्ञो जीवोंको अक्षरलाभ हो सकता है, किन्तु मनरहित असंज्ञो जीवोंको अक्ष रलाभ नहीं हो सकता; क्योंकि वे परोपदेशको ग्रहण नहीं कर सकते । और आगममें एकेन्द्रिय आदि असंज्ञो जीवों के भी लब्ध्यक्षर श्रु तज्ञान कहा है । उत्तर-संज्ञाक्षर ओर व्यंजनाक्षरका लाभ परोपदेशपूर्वक होता है किन्तु लब्ध्यक्षर क्षयोपशम और इन्द्रिय आदिके निमित्तसे होता है। अतः असंज्ञोजोवोंके लब्ध्यक्षरश्र तज्ञानके होने में कोई विरोध नहीं आता । यहाँ श्रुतज्ञानका अधिकार होनसे लब्ध्यक्षरको ही मुख्यता है संज्ञाक्षर और व्यंजनाक्षरकी मुख्यता नहीं है । प्रत्येक अकार आदि अक्षरकी अनन्तानन्त पर्यायें होती हैं। उनमें अनन्त तो स्वपर्यायें हैं और शेष अनन्तानन्तगुणी पर पर्यायें हैं। इन पर्यायोंका कथन पहले किया गया है। सर्व पर्यायपरिमाण अक्षरका अनन्तवाँ भाग, केवलीको छोड़कर शेष सब जीवोंके सदा उद्घाटित रहता है। उसके तीन भेद है-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट । सबसे जघन्य अक्षरका अनन्तवाँ भाग एकेन्द्रिय जीवोंके होता है। क्रमसे विशद्धि होनेपर दो इन्द्रिय आदि जीवोंके क्रमसे बढ़ता जाता है। दीर्घ श्वास लेना आदि अनेक्षरश्रु त हैं क्योंकि किसीके दीर्घश्वासको सुनकर यह शोकमें है' इस प्रकारका श्र तज्ञान होता है। ____ मनसहित जीवके श्र तज्ञान को संज्ञीश्रु त कहते है और मनर हित जीवके श्रुतज्ञानको असंज्ञोश्रत कहते हैं। द्वादशांग तथा उससे सम्बद्ध श्रुतको सम्यक्श्रु त कहते हैं और उसके सिवा अन्यत्र तको मिथ्याश्रु त कहते हैं । अथवा सम्यग्दृष्टिके श्र तज्ञानको सम्यक्श्रुत और मिथ्यादृष्टिके श्रु ताज्ञानको मिथ्याश्रत १. विशे० भा०, गा० ४६४ । २. विशे० भा०, गा० ५०२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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