Book Title: Jain Nyaya
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 313
________________ २९८ जैन न्याय अर्थात् श्रुतके दो उपयोग ( व्यापार ) हैं । उनमें से एकका नाम स्याद्वाद है और दूसरेका नाम है नय । सम्पूर्ण वस्तुके कथनको स्याद्वाद कहते हैं और वस्तु के एक देश के कथनको नय कहते हैं । यह पहले स्पष्ट कर दिया गया है कि श्रुतमें शब्दकी मुख्यता है । जब कोई ज्ञाता शब्दोंके द्वारा अपने ज्ञानको दूसरोंके प्रति प्रकट करनेके अभिमुख होता है तो उसका वह शब्दोन्मुख ज्ञान स्वार्थश्रत कहा जाता है और वह जो वचन बोलता है वह परार्थश्र ुत है । अन्त स्वयं जानने का साधन ज्ञान है और दूसरोंको बतलानेका साधन है शब्द | किन्तु ज्ञान में और शब्द में एक बड़ा अन्तर है। ज्ञान सम्पूर्ण वस्तुको एक साथ जान सकता है, किन्तु शब्द उसे एक साथ कह नहीं सकता। क्योंकि वचनका व्यापार क्रमसे होता है । फिर जैनदर्शन वस्तुको अनेकान्तात्मक मानता है कहते हैं अंश अथवा धर्मको । जैनदर्शनके अनुसार प्रत्येक वस्तु परस्पर में विरुद्ध प्रतीत होनेवाले सापेक्ष अनेक धर्मोका समूह है । न वह सर्वथा सत् ही है और न सर्वथा असत् ही है । न सर्वथा नित्य ही है और न वह सर्वथा अनित्य ही हैं । किन्तु किसी अपेक्षासे वस्तु सत् है तो किसी अपेक्षा से असत् है । किसी अपेक्षा से नित्य है तो किसी अपेक्षासे अनित्य है । इस प्रकार वस्तु अनेकान्तात्मक है । और अनेकान्तात्मक वस्तुके कथन करनेका नाम स्याद्वाद है । तथा उस अनेकान्तात्मक वस्तुके विवक्षित किसी एक धर्मके सापेक्ष कथनका नाम नय है । इस तरह श्रुतके दो उपयोग होते हैं । जहाँतक नान्तरोंमें उसे शाब्दप्रमाण या आगमप्रमाणके रूपमें उसके दोनों व्यापारोंका कथन दर्शनान्तरोंमें नहीं है । जैनदर्शन की देन है । अतः आगे उन दोनोंका विस्तारसे कथन किया जाता है । श्रुतज्ञानका प्रश्न है, दर्शमाना गया है । किन्तु स्याद्वाद और नयवाद स्याद्वाद स्वामी समन्तभद्रने आप्तमीमांसा में स्याद्वादका लक्षण इस प्रकार कहा है-“स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागात् किंवृत्तचिद्विधिः । सप्तमङ्गनयापेक्षा या देयविशेषकः ॥ १०४ ॥ " Jain Education International 'सर्वथा एकान्तको त्याग कर अर्थात् अनेकान्तको स्वीकार करके सात भंगों और नयोंकी अपेक्षासे, स्वभावकी अपेक्षा सत् और परभावकी अपेक्षा असत् इत्यादि रूपसे जो कथन करता है उसे स्याद्वाद कहते हैं । चन इत्यादि प्रत्ययों को जोड़नेसे जो रूप बनते हैं जैसे किचित् 'किं' शब्द में चित् कथंचित्, कथंचन, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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