Book Title: Jain Nyaya
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 327
________________ ३१२ बैन न्याय तथा जैसे वह इस क्षेत्रमें है वैसे ही यदि वह सभी देशोंमें हो तो वह मनुष्य ही नहीं रहेगा, क्योंकि आकाशकी तरह वह सर्वव्यापी है। तथा जिस प्रकार वह मनुष्य वर्तमानकालमें है वैसे ही यदि अतीत नारकी आदि और अनागत देव आदि पर्यायोंके कालरूपसे भी हो तो वह मनुष्य ही नहीं रहेगा; क्योंकि वह जीवत्वको तरह सब कालोंमें पाया जाता है। जैसे वह इस देश और कालमें हमारे प्रत्यक्ष है वैसे ही यदि अतीत अनागतकाल तथा अन्य देशमें भी हमारे प्रत्यक्षका विषय होता है तथा जैसे वह युवारूप है वैसे ही यदि वृद्धरूपसे भी है तो वह मनुष्य ही नहीं रहेगा, वह तो महासत्ता हो जायेगा। अतः वस्तु स्यात् अस्ति और स्यात. नास्ति है। तथा जीव 'स्यात् अस्ति और स्यात् नास्ति' है; क्योंकि जीवका जीवत्व स्व. सत्ताके भाव और परसत्ताके अभावके अधीन है । यदि वह जीव अपनेमें परसत्ताके अभावको अपेक्षा नहीं करता तो वह जीव न होकर सन्मात्र हो जायेगा। तथा परसत्ताके अभावकी अपेक्षा करनेपर भी यदि वह स्वसत्ताके सद्भावकी अपेक्षा नहीं करता तो वह जीवकी तो बात ही क्या, वस्तु ही नहीं हो सकेगा; क्योंकि उस अवस्थामें आकाशपुष्पकी तरह उसका अपना स्वरूप कुछ भी न होकर परका अभाव मात्र ही ठहरता है । अतः परका अभाव भी स्वसत्ताके सद्भावकी अपेक्षामें ही वस्तुका स्वरूप बनता है अन्यथा नहीं। जैसे अस्तित्वधर्म अस्तित्वरूपसे है, नास्तित्वरूपसे नहीं है अतः वह उभयात्मक है । यदि ऐसा न माना जाये तो वस्तुका अभाव हो जाये। क्योंकि भावनिरपेक्ष अभाव अत्यन्त शून्यरूप वस्तु को कहता है। इसी तरह अभावनिरपेक्ष भाव भी वस्तुको सर्वरूप कहता है। किन्तु न तो कोई वस्तु सर्वात्मक या सर्वाभावरूप कभी किसीने देखी है ? जो सर्वाभाव रूप है वह वस्तु ही नहीं है जैसे आकाशपुष्प । और यदि वस्तु सर्वात्मक है तो उसे कोई जान नहीं सकता। भावरूपसे विलक्षण होनेसे अभावता ठहरती है और अभावसे विलक्षण होनेसे भावता सिद्ध होती है। इस तरहसे भाव. रूपता और अभावरूपता-दोनों परस्पर सापेक्ष हैं। अभाव अपने सद्भाव और भावके अभावकी अपेक्षासे सिद्ध होता है भाव भी अपने सद्भाव और भभावके अभावकी अपेक्षासे सिद्ध होता है। यदि अभावको एकान्त रूपसे 'अस्ति' ही माना जाता है तो सर्वात्मना अस्तिरूप होनेसे जैसे अभाव अभावरूपसे 'अस्ति' है वैसे ही भावरूपसे भी उसके अस्तित्वका प्रसंग आता है। और ऐसी स्थितिमें भावरूप और अभावरूपका संकर होनेसे दोनोंका ही अभाव हो जायेगा; क्योंकि दोनोंका ही स्वरूप नहीं बन सकता। तथा यदि अभावको एकान्तरूपसे नास्ति ही माना जाता है तो जैसे अभाव भावरूपसे नहीं है वैसे ही अभावरूपसे भी नहीं हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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