Book Title: Jain Nyaya
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 302
________________ परोक्षप्रमाण जाता है । उसको देखनेवाले मनुष्यको उसकी इस क्रियाका अवग्रह आदि ज्ञान होता है । फिर 'यह भूखा है, भोजन करना चाहता है' इस प्रकारका श्रुतज्ञान होता है । दिगम्बर परम्पराके एक पक्षके अनुसार यह श्रुतज्ञान शब्दजन्य नहीं है किन्तु संकेतजन्य है । इसीसे उसे अनक्षरात्मक श्रुत कहा जाता है । परन्तु श्वेताम्बर - परम्परा के अनुसार चूँकि श्रुतज्ञानमात्रमें शब्द निमित है । इसलिए इस श्रुतज्ञानमें भी शब्द निमित है। उनका कहना है कि भूखा मनुष्य गूंगा होनेके कारण अथवा अन्य किसी कारणसे बोल न सकनेके कारण 'मैं भूखा हूँ, भोजन करना चाहता हूँ' दर्शकों को यह शब्दार्थज्ञान करानेके लिए मुँहके पास हाथ ले जाता है | अतः चूँकि शब्दके द्वारा कही जानेवाली बातको ही वह हाथकी चेष्टाके द्वारा प्रकट करता है, इसलिए उसकी वह चेष्टा शब्दार्थ रूप ही । अतः शब्दकी तरह ही श्रुतज्ञानका कारण होनेसे उसका अन्तर्भाव भी श्रुतमें ही होता है ।' उक्त चर्चापर और भी अधिक प्रकाश डालने के लिए श्वेताम्बर परम्परामें जो श्रुतज्ञानके अक्षररूप और अनक्षर रूप भेद किये हैं, उनका निरूपण किया जाता है | अक्षर के तीन भेद हैं- संज्ञाक्षर, व्यंजनाक्षर और लब्ध्यक्षर | विभिन्न लिपियों में अंकित आकाररूप अक्षरको संज्ञाक्षर कहते हैं । मुखसे उच्चारित अक्षरोंको व्यंजनाक्षर कहते हैं । अक्षरके लाभको लब्ध्यक्षर कहते हैं । अर्थात् श्रुतज्ञानका उपयोग और श्रुतज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम इन दोनोंको लब्ध्यक्षर कहते हैं । इनमें से संज्ञाक्षर और व्यंजनाक्षर तो द्रव्यश्रुत हैं और लब्ध्यक्षर भावश्रुत है । यह लब्ध्यक्षर श्रुतज्ञान किसीको प्रत्यक्षपूर्वक होता है और किसीको अनुमानपूर्वक होता है । २८० शंका-- आप अक्षर के लाभको लब्ध्यक्षर कहते हैं । सो पुरुष, घट, पट आदि शब्दोंके ज्ञानरूप अक्षरका लाभ संज्ञी जीवोंके तो हो सकता है, किन्तु असंज्ञी जीवोंके नहीं हो सकता; क्योंकि अक्षरका लाभ परोपदेशपूर्वक होता है और जिनके मन नहीं है उनके परोपदेशपूर्वक अक्षर लाभ नहीं हो सकता । शायद आप कहें कि असंज्ञी जीवोंके लब्ध्यक्षर श्रुतज्ञान नहीं बनता तो मत बनो, किन्तु ऐसा कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि आगममें एकेन्द्रिय आदि असंज्ञो जीत्रोंके भी लब्ध्यक्षर श्रत कहा है । और अक्षरलाभके बिना श्रुतज्ञान सम्भव नहीं है । समाधान - संज्ञाक्षर और व्यंजनाक्षरका लाभ परोपदेशपूर्वक होता है, किन्तु लब्ध्यक्षर क्षयोपशम और इन्द्रिय आदिके निमित्तसे होता है, अतः वह असंज्ञी जीवोंके हो सकता है। यहां मुख्यता लब्ध्यक्षरकी है, न कि संज्ञाक्षर और व्यंजनाक्षरकी; क्योंकि यह श्रुतज्ञानका अधिकार है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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