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जैन जाति महोदय.
करों के नाम वर्ण और देहमान प्रमाणे मूर्त्तियों बनवा के स्थापन करवा दी वह मन्दिर भगवान् महावीरके समय तक मोजुद थे जिनकि यात्रा भगवान् गौतमस्वामिने की थी ।
भगवान् के साथ ४००० राजकुमारोने दीक्षा ली थी जिनमे भरतका पुत्र मरिचीकुमार भी सामिल था पर मुनि मार्ग पालनमे असमर्थ हो उसने अपने मनसे एक निराला वेषकि कल्पना कर ली जैसे परिव्राजक सन्यासियोका वेष है । पर वह तत्त्वज्ञान व धर्म सब भगवान्का ही मानता था अगर कोइ उसके पास दीक्षा लेनेको आता था तब उपदेश दे उसे भगवान् के पास भेज देता था एक समय भरतने प्रश्न किया कि हे प्रभु ! इस समवसरणके अन्दर as सा जीव है कि वह भविष्य में तीर्थकर हो ? भगवान्ने उत्तर दीया कि समवसरणके बहार जो मरिची बेठा है वह इसी अवसर्पिणीके अन्दर त्रिपृष्ट नामका प्रथम वासुदेव व विदेह क्षैत्र मूका राजधानी मे प्रीयमित्र नामका चक्रवर्त्ति और चौवीसवां महावीर नामका तीर्थंकर होगा यह सुन भरत. भगवान्को वन्दन कर मरिची के पास के वन्दना करता हुवा कहने लगा कि हे मरिची ! में तेरे इस वेषको वन्दना नहीं करता हुं परंतु वासुदेव चक्रवर्त्ति और चरम तीर्थंकर होगा वास्ते भावि तीर्थंकरको में वन्दना करता हूं यह सुन मरिचीने मद (अहंकार) किया कि अहो मेरा कुल कैसा उत्तम है ? मेरा दादा तीर्थकर मेरा बाप चक्रवर्त्ति और मैं प्रथम वासुदेव हुँगा इस मद के मारे मरिचीने निच गोत्रोपार्जन किया । एक समय मरिची भगबाके साथ विहार करता था कि उसके शरीरमे बीमारी हो गइ पर