Book Title: Jain Jati mahoday
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Chandraprabh Jain Shwetambar Mandir

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Page 996
________________ स्वामिवात्सल्य. - (१५५) बसे चावल डालदेते हैं परद्रव्य सहायता के अभाव हमारे स्वधर्मी भाई और विधवा बहनो अनेक प्रकार के संकट सहन कर रही हैं और लाचार हो धर्मसे भी पतित बन रही हैं उनकी भोर हमारे धनाढ्यों की तनिक भी पर्वाह नहीं है कि इनको भी वात्सल्यता दिखाई जाय दर असल सञ्चा स्वामिवात्सल्य वह ही है कि दुःख पीडित अपने भाइयों को व्यापार रुजगारमें लगाकर उनका उद्धार करें अगर स्वधर्मी वात्सल्यता से सच्चा प्रेम हो तो हमारे अग्रेसर व धनाढ्य यह बतलावें कि हमने हमारी जिन्दगीमें इतने भाइयों पर उपकार किया ? में तो आज भी दावे के साथ कह सकता हूं कि अगर एकेक धनाढ्य दो दो चार २ भाईयों को सहायता दे तो हमारी समाज में दुःख दारिद्रता का नाम निशान तक भी न रहे पर ऐसे सद्कार्यों की पर्वाह है किसको ? वहतो एक दिन माल मिष्ठान बनाके चाहे भांग ठंडाई का नशा जमानेवालों क्यो न हो परन्तु भाप तो भोजन करवाने में ही कर्तव्य समझ लिया है फिर वे स्वामिवात्सल्य जीमनेवाले उसरोज धर्मशाला में धर्म क्रिया करे चाहे वे अनेक प्रकार के अत्याचार करे स्वामिवात्सल्य करनेवाले को तो तीर्थकर नामबंध हो गया। महरबानों ! यह स्वामिवात्सल्य नहीं पर एक किस्म की नाम्बरी कहो चाहे न्याति जीमणवार है जरा आंख उठा कर देखिये माज अन्य जातियों अपने भाइयों को किस कदर सहायता देकर अपने धर्म की कैसी उन्नति कर रहे हैं क्या उस पाठका भाप भी कभी अनुकरण करेंगे ?

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