Book Title: Jain Jati mahoday
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Chandraprabh Jain Shwetambar Mandir

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Page 1011
________________ ( १७० ) जैन जाति महोदय प्रकरण क्ला. थे पर क्षमाशील प्राचार्य उन विधर्मियों के साथ टकर खाते हुए अपने पैरों पर खडे रहते थे, और उन विधर्मियों के साथ ऐसा वर्ताव करते थे कि उनके किए हुए दुष्कृत्यों का पाखिर उनको पश्चाताप करना पडता था शास्त्रार्थ करने को भी हमारे प्राचार्य हरवख्त तैयार रहते थे। पर वे शुष्कवाद या वितण्डावाद नहीं किया करते थे प्रत्युत बडे २ राज्य न्यायालय और अच्छे अच्छे विद्वानों के मध्यस्थत्व. मे शास्त्रार्थ किया करते थे तत्वज्ञान समझाने में हमारे प्राचार्यों की विद्वता कम नहीं थी, अर्थात् अनेकान्त पक्ष और स्याद्वादरूपी अभेद्य शस्त्र के सामने उन विधर्मियों को शिर झुकाना ही पडता था, इस लिए ही तो हमारे प्राचार्य सिहशिसु, व्याघ्रशिसु, वादि वैताल, वादिगंजन केसरी, वादि चक्रचूडामणी, आदि २ इल्कापों से विभूषित थे । केवल प्राचार्य ही नहीं पर हमारे मुनि पुङ्गव भी जैन तत्वज्ञान का प्रतिपादन करने में या शास्त्रार्थ की कसोटी पर खूब ही कसे हुए थे, कारण उस जमाने में जिस जिस विकट प्रदेशमें विहार करते थे वहां उनको पग २ पर शास्त्रार्थ करना पड़ता था, इसी कारण से उन महापुरुषोंने दिगविजय कर वाम मार्गियों जैसे व्यभिचार मत के किल्ले को तोडकर जैन धर्म का झण्डा फरकाया था, उनकी स्मृति स्वरूप माज पर्यन्त जैन जातियों श्रद्धापूर्वक जैन धर्म पालन कर रही है। मध्यकालिन समय हमारे प्राचार्यों के साधारण क्रिया मेद, मतभेद, और विचारभेद से कई कई गच्छों का प्रादुर्भाव हुमा,

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