Book Title: Jain Jati mahoday
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Chandraprabh Jain Shwetambar Mandir

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Page 1008
________________ - (१६७) लोभेछा से वे दिक्षा नहीं दिया करते थे, परन्तु स्वकल्यान के साथ जगदोद्धार कर जैन धर्म का झण्डा फरकाने की उत्तम भावना से ही वे योग्य पुरुषों को दिक्षा दे उन का कल्यान करते थे । तब ही तो उन मुनि पुङ्गवों के त्याग वैराग्य तप, संयम, निस्पृहता, और परोपकार परायणता की छाप केवल हिन्दुस्थान मे ही नहीं; पर सम्पूर्ण विश्व में पड़ती थी। संसारभर में जितना आदर और उच्च स्थान जैन साधुओं को मिलता था, उतना दूसरो को नहीं इस का कारण यही था कि जैन मुनियों की कष्टाचर्य और जगत्वातसल्यता विश्व को मुग्ध बना रही थी। ... हमारे प्राचार्य देवोंने दुःख पीडीत कुव्यसन सेवित जनता का जैसे उपदेश द्वारा उद्धार किया वैसे ही अज्ञान पिडीतात्माओं के लिए अनेक ग्रन्थों की रचना कर उनका भज्ञान तिमिर नष्ट कर ज्ञानसूर्य का प्रकाश किया था, विश्व में ऐसा कोई विषय नहीं रहा है कि जिसपर हमारे पूज्याचार्य महाराजने कलम न उठाई हो, जैसे आत्मज्ञान, अध्यात्मज्ञान, तत्वज्ञान अष्टांग, योगमासन समाधि, ध्यान मौन, ऐतिहासिक, व्याकरण, न्याय, तर्क, छन्द, काव्यकोष, अलंकार नीति ( कायदा ) उपदेश, ज्योतिष, वैद्यक, गणित, फलित, यंत्र मंत्रप्रयोग स्वमसुकन स्वरोदय रेखा, लक्षण व्यंजनादि अष्ट महानिमित स्त्रीपुरुषों की सर्व कला और कथा साहित्य तो आप श्रीमानोंने इतनी विशाल संख्या में रचा था कि जिसमें धर्माचार, गृहस्थाचार नीति वैराग्य उपदेश गूढार्थ समस्या वीरों की वीरता धीरों की धैर्यता क्षमा दया शील सन्तोष

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