Book Title: Jain Jati mahoday
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Chandraprabh Jain Shwetambar Mandir

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Page 1006
________________ जैनाचार्य और मुनिवर्ग, । १६५ ) परिभ्रमण कर जनता में यज्ञादि अनेक कुरूढियों और व्यभिचार जैसे पाखण्ड मत को समूल नष्टकर भगवान महावीर का 'अहिंसा परमो धर्मः' तथा सद्सान और सदाचार का खूब जोर सोर से प्रचार कीया; उन की बदौलत ही देश में सर्वत्र भानंद मंगल और शान्ति का साम्राज्य छा गया था। कारण जैसे कुएमें पानी होता है वैसे ही कोठा खेली में आया करता है, उस जमाने में उन आचार्यों के हृदय में ही नहीं पर उनकी नस नस में शान्ति की लहरों कल्लोलें किया करती थी, और वही शान्ति जनता को प्रसादीरूप में दी जाती थी और उस प्रसादी के प्रभाव से ही जन समूह तन, मन और धन से समृद्धशाली बन धर्म की प्रभावना किया करता था। उस समय समाजमें एक ही प्राचार्य नहीं थे, पर अनेक प्रान्तों में अनेक भाचार्य विहार कर धर्म प्रचार किया करते थे, पर एक दूसरों के प्रवर्णवाद बोल उन क पैरों को उखाडने का धंधा वो वे जानते ही नहीं थे; प्रत्युत एक दूसरों के गुणों के अनुमोदन कर गृहस्थ लोगों की श्रद्धा को मजबूत बनाते थे और . धर्म कार्य में प्रेम एक्यता वात्सल्यता रख अन्योन्य अनेक प्रकार से सहायता किया करते थे. उस समय उन महापुरुषों के धर्मशाला उपाश्रय का झगड़ा या बंधन नहीं थे कि केवल उपायों के पाटों पर बैठ व्याख्यान देने में ही वे अपने प्राचार्य पद का गौरव सममें, परन्तु वे लोग प्रायः राज सभा और पब्लिक में अपने पवित्र धर्म की महत्वता

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