Book Title: Jain Jati mahoday
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Chandraprabh Jain Shwetambar Mandir

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Page 1005
________________ ( १६४ ) जैन जाति महोदय प्रकरण छट्ठा. चलाने को या सुख साहिबी भोगने को और गाजे बाजेसे सत्कार पाने को आचार्य पद्वी ली जाती है। जो मुनि श्राचार्यपद पर आरूढ होते हैं, तब उनके ध्येय बदल जाते हैं। कारण मुनिपद में तो स्वकल्यान की ही जुम्मेवारी थी; पर आचार्य होनेपर तो चतुर्विघ संघ की जुम्मेवारी आपश्री के शिरपर आ पड़ती है । जैसे राजा के दिवान पर राज की जुम्मेवारी और शेठजी की दुकान का भार मुनिम पर आ पडता है, और उन के लाभालाभ के उत्तरदाता भी बेही हुआ करते हैं; इमी माफिक शासन की हानि लाभ के उत्तरदाता श्राचार्य श्री हैं । इसी लक्ष बिन्दु को आगे रख आचार्यश्रीने अनेक संकटों का सामना करते हुए भी देश विदेश में अर्थात् विकट भूमिमें विहार कर जैन धर्म का झंडा फरकाया 'अहिंसा परमो धर्मः' का प्रचार किया, दुर्व्यसन सेवित जनता का उद्धार कर उन को जैन धर्म की दिक्षा दी चतुविंध श्री संघ की सुन्दर व्यवस्था कर उनको सुयोग्य रास्ते पर चलाया, और स्वपरात्मा का कल्याण कर अपने कर्तव्य का अच्छी तरह पालन किया, कृतकार्य के लिए वे केवल मनोरथ कर के ही नहीं बैठ जाते थे पर अपने पुरुषार्थ द्वारा कार्य कर बतलाते थे; जिसके प्रमाण ढूंढने की भी हमें जरूरत नहीं है आज उनके बनाए हुए महाजन संघ ( जैन जातियों ) हजारों जैन ग्रंथ और असंख्य जैन मंदिर और मूर्तियों उन आचार्य देवों की स्मृति करा रही है । इतना ही नहीं पर उन महर्षियोंने भारत के चारों और

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