Book Title: Jain Jati mahoday
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Chandraprabh Jain Shwetambar Mandir

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Page 998
________________ जैन मंदिरो की प्रतिष्टाए. (१५७) समझ रहे हैं पर उन अदूरदर्शी लोगों को यह ख्याल नहीं पाता है कि पहिले मन्दिर बनाये जाय या मंदिर की पूजा करनेवाले बनाए जाय ? मगर मन्दिर पूजनेवालों की संख्या बढ जायगी तो वे स्वयं अपने कल्याण के लिए हजारों मन्दिर बना लेंगे पर मन्दिर पूजकोंकी ही संख्या कम होती जायगी तो उन मन्दिर को कौन पूजेंगे? क्या पहि. लेके माफिक उनकी आशातना नहीं होगी ? अब हम मन्दिरों के काम के लिए देखते है कि अाज पचीस कौड़ हिन्दुओं के मन्दिगेमें जितने काम करनेवाले कारीगर नहीं मिलते हैं तब मुठ्ठीभर जैन कौम के लिए जहां देखो वहां प्राचिन मजबूत काम तोड़ा तौड़ा कर नए फैसन के कमजोर काम में हजारों लाखों रूपैये पाणी की तरह बहा रहे हैं कारण जैन कौम को धर्म के नामसे रुपयों की तो किसी हालतमें .. भी कमी नहीं है, आठ आनों की एक वही और एक रसीद बुक ले कर दोचार नौकर आदमी टीप कराने को निकल जाते है खाना खुराक गाडीभाड़ा और तनखा बाद करने पर अगर बिचमें किसी का हाथ न पडे तो एक हिस्से के रूपये मन्दिरजी तक पहुंच सक्ते हैं आगे प्रतिष्टाकी तरफ देखिए तो पूर्व जमाने में सुविहित प्राचार्य प्रतिष्टा करावाया करते थे और बहुत से पुराणे मन्दिरों के शिलालेख भी एसेही मिलते हैं परन्तु आज अपने दुष्टाचरण से लक्ष्मी और सन्तान से दुःखी होते हुए श्रावक को कितनेक लोग शंका डाल देते हैं कि तुमारे गांव में मन्दिर मूर्ति ठीक नहीं है इसकी फिरसे शीघ्र प्रतिष्ठा करावें कि गांव की अच्छी भावादी होगी। बस दुःख पीडित वाणियों को इतना कहना ही चाहिए वे हजारों लाखों पर

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