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आचार्यश्री का उपदेश.
( ६१ )
ध्यानरूपी अग्नि, दम रूपी वायुसे प्रदीपत्त, पांच इन्द्रियकी विषय रूपी पशु और अहिंसा आहुतिरूप यज्ञ कर स्वपर श्रात्माकों पवित्र बनाना इसका नाम भाव यज्ञ कहा है । अगर पशुबलिरूप यज्ञकर स्वर्ग मोक्षकी इच्छा करता होतों वह युक्ति भी ठीक है कि रूदरका कपडा रूदरसे निर्मल नहीं होता है जैसे
न शोणित कृतं वस्त्रं । शोणिते नैव शुध्यते । शोणितार्द्र यद्वत्रं । शुद्धं भवति वारिणा । १ ।
अर्थात् रूदरसे खरडा हुवा वस्त्र रूदरसे साफ नहीं होता है पर जलसे निर्मल होता है जैसे पूर्व भव में घोर हिंसा कर कर्मोंपार्जन किये है वह हिंसासे नष्ट नहीं पर उलटे डबल दुःखदाइ होता है उस कर्मोंकों नष्ट करनेके लिये एक अहिंसा ही है हे राजन् ! यह भी स्मरण रखना चाहिये कि पूर्व भवमें उपार्जन किये कर्म स्वयं आत्माको भवांतर मे अवश्य भोगवना पडता है । जैसे
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स्वयं कर्म करोत्यात्मा । स्वयं तत्फलम श्रुते ।
स्वयं भ्रमति संसारे । स्वयं तस्माद्विच्यते । १ ।
अर्थात् आत्मा स्वयं कर्मका कर्ता है स्वयं भुक्ता हैं और स्वयं कर्मोंकों नष्ट कर मोक्ष प्राप्त करता है इस वास्ते आपको सत्य धारण करना चाहिये क्यों कि संसार में सत्य एक एसा पवित्र वस्तु है की—
सत्येन धार्यते पृथ्वी । सत्येन तपते रविः । सत्येन वाति वायुश्च । सर्व सत्य प्रतिष्टतम् । १ ।
हे नरेश ! मनुष्य मात्रका कर्त्तव्य है कि प्रत्येक धर्म का