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आचार्य श्री रत्नप्रभसूरि.
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तीर्थों की यात्रा करने का अनुपम सौभाग्य प्राप्त हुआ | रास्ते में पूर्व विहारी साधु और साध्वियाँ तथा श्रावक गण सम्मिलित होते जाते थे। संघ का नगर नगर में स्वागत होता था | इस यात्रा में स्थावर तीर्थ के साथ साथ जंगम तीर्थों की यात्रा का भी लाभ मिला । संघ का विशाल समुदाय सुख पूर्वक चलता हुआ श्री सम्मेतशिखर पर्वत की रम्य छाया में आ पहुँचा । प्रातः काल आचार्यश्रीने चतुर्विध संघ के सहित उँचे शिखिरपर पहुंच कर वसि तिर्थकरों के चरणकमलों में वंदना कर संघ के समस्त यात्रियों के लिये भी यह शुभ दिन सदा के लिये चिरस्मरणीय बनाया । यह तीर्थ परम रमणीक मनोहर एवं सुन्दर लगा । इस उत्तम तीर्थ में सेवा, पूजा तथा भक्ति ही शुभ भावना का कृत्य यात्रियों के लिये पापपुञ्जहारी था ।
वैसे तो आचार्य श्री रत्नप्रभसूरी तपस्वी थे ही तथापि वे इस अन्तिम अवस्था में उत्कृष्ट निवृत्ति की ही अभिलाषा रखते थे । इस तीर्थ की यात्रा करने से आपका चित्त इतना श्रह्लादित हुआ कि आप इस भूमि को छोड़ना नहीं चाहते थे । अन्त में अपनी अभिरुचि के अनुसार श्रापने निश्चय किया कि अपनी आयु का शेष काल इस भव्य भूमि पर ही बिताउँगा |
पूर्ण निवृत होने के अभिप्राय से रत्नप्रभसूरिजी महाराजने श्री संघ के समक्ष अपने जेष्ठ शिष्य धर्मसेन को आचार्य पदपर आरूढकर उनका नाम यक्षदेवसूरि रक्खा जो कि भूतपूर्व यतदेव