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( २६ ) जैन जाति महोदय प्र० तीसरा. जावेगा पर। हे कृपानिधि ! जगत् में धर्म के अनेक भेद सुने जाते है अर्थात् मत्तमत्तान्तर है इसकी परिक्षा किस कसोटी से हो सक्ती है वह बतलाइये, मैं उस धर्म को स्वीकार करना चाहता हूं कि जिन से आत्मकल्यान हो। इसपर सूरीश्वरजीने कहा हे धराधिप। एसे तो सब धर्मवाले अपने अपने धर्म को श्रेष्ट बतलाते है पर बुद्धिवान हो वह स्वयं परिक्षा कर सक्ते है
यथा चतुर्भिः कनकं परीक्षते; निघणच्छेदन तापताडनैः । तथैव धर्मे विदूषा परीक्षते; श्रुतेन शीलेन तपोदयागुणै ॥१॥
१ जैसे कसोटी पर कसना २ छेदना ३ तपाना और ४ पीठना एवं चार प्रकार से सुवर्ण की परीक्षा की जाति हैं इसी माफीक १ शास्त्र २ शील ३ तप और ४ दया इन चार प्रकार से बुद्धिवान पुरुषधर्म की परीक्षा भी कर सक्ते है
( १ ) जिस शास्त्रों के अन्दर परम्पर विरूद्धना नहों" अहिमापरर्मोधर्मः को प्रधान स्थान दीया हो, आत्म कल्याण का पूर्ण रहस्ता बतलाया. हो । उन शास्त्र का धर्म परमाणिक होता है ।
(२) शील-जिसका खान पान आचार व्यवहार ब्रह्मचायदि शुद्ध हो. वह शील परमाणिक माना जाता है ।
(३) तप-इच्छा का निरूध करना यानि अन्नादि का त्याग । (४) दया सर्व जीवो के साथ मैत्रिक भावना रखनी
इन परीक्षा के चारो साधनोपर सूरीश्वरजी महाराजने जैन और जैनेतर धर्म की खुब ही समालोचना पूर्वक विवेचन कर