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(१५) (३६) अन्त्यावस्थिते श्चोभय नित्यत्वाद
विशषः-मान लिया जाय कि अंतिम आकार स्थायी होता है, ( तो भी यह सिद्धांत स्त्रीकृत नहीं होसकता, क्योंकि फिर उसी तर्क के अनुसार ( आत्मा और शरीर ) दोनों को
स्थायी मानना पडेगा। यहां पर यह याद रखना चाहिये कि उपरोक्त सूत्रों में जैनों के स्याद्वाद सिद्धान्त को विकृतरूप दिया गया है। ब्रह्मसूत्रों के टीकाकार शंकराचार्य इत्यादि ने उपरोक्त सिद्धान्त की आलोचना और उपहास करने में बडा अन्याय किया है। क्यों कि उन्होंने उस सिद्धांत के आशय को तोडमोड कर बदल दिया है।
हमने जो दलीलें ऊपर दी हैं उनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि यदि वैदिक काल में जैन धर्म का प्रचार न होता तो हमको ये उसके प्रमाण न मिलते। जैनों का स्याद्वाद न्याय, जो एक बहुत कठिन सिद्धान्त है, वेद व्यास के समय तक सागपूर्ण हो चुका होगा क्योंकि तभी तो वेदव्यास जैसे उद्भट विद्वान् का ध्यान उसकी ओर आकर्षित हुवा और इस सम्पूर्णता को प्राप्त करने में इससे पहले निःसन्देह कई शताब्दियां लग गई होंगी। ____अतएव यह निश्चित है कि स्याद्वाद न्याय, जो जैन धर्म का एक प्रधान अंग है, ब्रह्मसूत्रों के समय के पहिले मौजूद