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(३९) महावीर और पाटलीपुत्र के मध्यवर्ती काल की इस प्रकार पूर्ति करने में केवल यही नतीजा निकलता है कि हम इस बात पर विश्वास करें कि जिन सिद्धान्त ग्रन्थो का संग्रह पाटलीपुत्र में हुआ था वे सभा के पहले मौजूद थे और उनकी रचना पहले पहल महावीर के गणधरों (शिष्यों) ने की थी। सिद्धान्त-ग्रन्थों और उनकी टीकाओं मे भी यही बात मिलती है।
सिद्धान्त-अन्थों की रचना शैली, प्रश्नों और उत्तरो के लिखने की रीति, समस्त साहित्य का क्रम और बहुत सी अन्य महत्वपूर्ण बातें जिनको विस्तार के मय से यहां पर नहीं लिस्न सकते । उपरोक्त कथन का बहुत कुछ समर्थन करती है। उपरोक्त प्रमाणों के समर्थन में चौद्ध सूत्रों
के प्रमाणःबौद्धों के मग्धिम निकाय नामक ग्रंथ में महावीर के शिष्य उपाली और गौतम बुद्ध में जो विवाद हुआ था, उसका वर्णन है। जेकोबी ने इस वर्णन को इस प्रकार लिखा है:निग्गंथ उपाली कहते है कि दंड तीन प्रकार के होते हैं ( १ ) काया का दंड ( २ ) वचन का दंड ( ३ ) और मनका दंड । स्थानांग सूत्र के त्रितीय उद्देशक में जो जैन सिद्धान्त दिया है वह ज्यों का त्यों यही है।