Book Title: Jain Itihas
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 105
________________ कि हम महान् तीर्थकरों के कहे हुए उत्कृष्ट आदेशों __ के अनुसार सदैव आचरण करें। हमको स्वार्थ की ओर ले जाने वाली इच्छाओं का व पाप की ओर झुकाने वाले विचारों का बहिष्कार कर देना चाहिये और परिग्रह को मर्वथा त्याग देना चाहिये। केवल इन्हीं बातों से हम सचे शिष्यकहे जा सकते हैं । जैन धर्म की मान्यता है कि सदाचार ही परम धर्म है और वह प्रेम, पवित्रता, दया, आत्म त्याग इत्यादि लोकोत्तर सद्गुणों का विरोध करने वाली मानसिक और शारीरिक पातों को त्याग देने से प्राप्त होता है। जप तक मनुष्य विषय वामनाओं में फंसा रहता है और जय तक वह मंमार से अपने आपको दूर नहीं रखता तब तक उसे शिश्य नहीं कह सकते । ___ तीर्धकरों के उपदेशों का एक मात्र उद्देश यही है कि मनुष्य सद्गुण और पवित्रता मन्वेि और मन तथा कृती से प्रेम और दया में लिप्त हो जाय जिसमे कि उसकी आत्मा मसार के बंधन मे गुरा हो सके । अपने मन में फेवल यह ममझ टेना कि नीकर सदा दया, पवित्रता और सदाचार की मूर्ति पेपिनी पार पा नहीं है जब तक कि हम इन सदगुणों का अनुकरण करने की रपटा न करें। देवल यह जानना कि. तीवर मद्गुग, दया व पवित्रता की मूर्ति थे, किमी पान फा नही दानर कि हम भी मे ही गुण प्राम करने की चेष्टा न परे । नाही यह जान लेना भी पचान नहीं है पि वीर

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