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ने की थी जो ई. स. पूर्व १५४ महावीर के ३१३ वर्ष पीछे मोक्षगामी हुवे। इस प्रकार परोक्ष रूप से मथुरा के लेख इस बातकी साक्षी देते हैं कि इसा से पूर्व दूसरी शताब्दी के मध्य में श्वेतांबर संप्रदाय का अस्तित्व था।
उपरोक्त प्रमाण से यह स्पष्ट है कि मथुरा में जो जैन मूर्तियां भूगर्भ से निकाली गई हैं वे दिगंबर संप्रदाय की नहीं किन्तु श्वेतांबर संप्रदाय की हैं। इस बात का भी पता लग चुका है कि उन मूर्तियों को छोडकर जिनका पता पुरातत्त्वज्ञों ने लगाया है भारतवर्ष के जैन मंदिरों की असंख्य मूर्तियों में दिगंवर संप्रदाय की एक मूर्ति भी नहीं है जो मथुरा में मिली हुई मूर्तियों के बराबर प्राचीन हो । अतएव यह मानना गलत नहीं है कि इसवी सन् की पहली सदी मे दिगंबरों का अस्तित्व न था और इसलिए यह स्पष्ट है कि वे अर्वाचीन हैं।
८ दिगंबर शास्त्रों मे महावीर के प्रसिद्ध प्रतिद्वंदी मक्खलीपुत्र गोशाला का उल्लेख कहीं नहीं मिलता परन्तु जैन और बौद्ध सूत्रों में गोशाला के जीवन चरित्र और सिद्धान्तों फा संपूर्ण वृतान्त दिया है । यह बात बडे महत्व की है और निश्चित रूप से सिद्ध कर देती है कि दिगंवर तथा उनके सूत्र अर्वाचीन हैं।