Book Title: Jain Itihas
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 78
________________ पूजन विधियों का अनुसरण नहीं किया । उन्होने कर्म के बंधन मे छुटकारा पाने के लिए मूर्तियों की पूजा करने का अथवा उन पर द्रव्य चढाने की कभी चेष्टा न की । वे जानते थे कि मूर्तिपूजा करना एक प्रकार से रिशवत (चूंस) देना है। घोर तपस्या, अपरिगृह, स्वार्थत्याग, और कष्टसाधना के द्वारा ही उन्होने अपने कमों के बंधन को तोडा और मुक्ति पद को प्राप्त किया, क्यों कि वे इस बात को भली भांति जानते थे कि तीर्थकर न तो किसी दूसरे को कर्म बंधन मे मुक्त कर सकते हैं और न वे प्रकृति के कार्यकारण नामक छः नियम के विरुद्ध चल सकते हैं। तीर्थकर अपने विश्वव्यापी प्रेम के कारण, अपने अद्वितीय स्वार्थत्याग के कारण, अपनी अखूट दया के कारण व विशषतः मानव जाति पर की हुई अमूल्य सेवाओं के कारण भावी प्रजा की ओर से अमित आदर व प्रतिष्ठा के योग्य है । परन्तु इसके साथ ही साथ यह भी याद रखना चाहिए कि उनकी सब से बडी महत्ता इस कारण है कि वे आत्मनिरोध करत थे, अत्यंत दीन भाव से रहते थे और अपने आपको बिलकुल भूल गये थे । यदि उनमे ये दैवी गुण न होते. तो वे करोडो मनुष्यो के हृदय पर अधिकार जमाने मे सर्वथा असमर्थ और अयोग्य होते । वे दूसरों को देते थे, परन्तु उनसे कुछ लेने का ख्याल भी अपने जी में न लाते थे।

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