Book Title: Jain Itihas
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 87
________________ आवश्यकता हुई, परन्तु दूसरों से द्रव्य मांगने का व उसे प्रकट रूप में अपने पास रखने का जब वे साहस न कर सके तब उन्होंने मूर्ति पूजा की नई तरकीब निकाली और अपने अनुयायियों को मूर्तियों के पूजन और दूसरे खर्च के लिए द्रव्य दान करने का उपदेश दिया । जैसी कि आशा की जा सकती थी मूर्ति पूजा उनको लाभप्रद हुई और वे साधु धीरप और चतुराई से इस खजाने का दुरूपयोग करने लग गये। ज्यों ज्यों समय बीता वे इन्द्रियों के क्षणिक सुख में लिप्त होते गये और विपय वासनाओं के दास बन गये। जब उनक धार्मिक भावों का लोप हो गया तब वे दांभिक हो गये। सच्चे साधुओं का मार्ग तलवार की धारा के समान तेज-कठिन होता है किन्तु जब वे इस मार्ग पर न चल सके, तव अपने स्वार्थ साधन के निमित्त व अपने पतित आचरणोंके अनुकुल हो इस प्रकार शास्त्रो का विपरीत अर्थ करने लगे । जब वे धार्मिक तत्त्वों के असली अभिप्राय को समझने की शक्ति को खो बैठे, तय उन्होंने लौकिक वातों को आध्यात्मिक में, नाश को प्राप्त होने वाले पदार्थों को स्थायी में और असत्य को सत्य में उलझा दिया। अहंकार के आजाने से सत्य का लोप हो गया और जब साधु धार्मिक निडान्नों को उलटी दृष्टि से देखने लगे

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