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प्राचीन है परन्तु यह उनका भ्रम है । स्वयं वेदों में ही इसका संतोषजनक प्रमाण मिलता है कि वैदिक धर्म के पहिले और उसके साथ साथ, अन्य धर्मों का भी प्रचार था। यदि ऐसा न होता तो हमको वैदिक काल में ऐसे मनुष्यों के उल्लेख न मिलते कि जिनके सिद्धान्त वैदिक धर्म से विरुद्ध थे । इसके कुछ उदाहरण नीचे दिये जाते हैं।
(१) “ अग्नि पोमियं पशु हिंस्यात्" अर्थात् ऐसे पशुओं की हिंसा न करनी चाहिये जिनके देव अनि और सोम हैं।
(२) “ मा हन्यादु सर्व भूतानि" अर्थात् किसी जीवधारी की जान न लेनी चाहिये।
(३) ऋग्वेद के मंडल १, अष्टक २, वर्ग १०, अध्याय ५, सूक्त २३, ऋचा ८ में ऐसे मनुष्यों का वर्णन आया है कि जो सोमरस का निषेध करते थे।
(४) ऋग्वेद के मंडल ८, अध्याय १०, सूक्त ८९, ऋचा ३, मे भार्गव ऋषिने कहा है कि इन्द्र कोई वस्तुही नहीं है। चोथी ऋचा में इन्द्र ने अपने अस्तित्व को सिद्ध करने की चेष्टा की है और यह कहा है कि वो अपने शत्रुओं का नाश कर देता है।
(५) ऋग्वेद के अष्टक ३, अध्याय ३, वर्ग २१, ऋचा १४ में ऐसे मनुष्यों का उल्लेख है जो किक्त अथवा मगध मे रहते थे और यज्ञ दानादि की निन्दा करते थे।