Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 06 07 Author(s): Nathuram Premi Publisher: Jain Granthratna Karyalay View full book textPage 7
________________ ३२५ तो इसमें हानि क्या है ? अकेला आया था, अकेला ही जाऊँगा। इसकी चिन्ता क्या है ? इस असंख्यजीवपरिपूर्ण संसारसे मेरी नहीं बनी, अच्छा, बिदा । पृथ्वी, तू अपने नियमित मार्ग (कक्षा ) में धूमती रह, मैं भी अपने मनकी जगह जाता हूँ। तेरा मेरा नाता छूटा, तो इससे तेरी हानि क्या है ? और मेरी ही क्या हानि है ? तू अनन्त काल तक यों ही शून्य-पथमें घूमा करेगी। और मैं, मैं भी कुछ ही दिनोंका मेहमान हूँ-फिर, जिसके पास परम शान्ति मिलती है, सब ज्वालाएँ मिट जाती हैं, उसीके पास, तुझे चक्करमें छोड़ कर चल दूंगा। _अच्छा, तो इससे यह निश्चय हुआ कि एक तरहसे मैं बूढ़ा हो चला। अब मुझे क्या करना चाहिए ? किसी नासमझने लिख दिया है कि पचासके बाद वनमें चले जाना चाहिये-'पञ्चाशोज़ वनं व्रजेत्'। वन और कहाँ है ? मेरे लिये तो बस्ती ही वन है । आप सच मानियेगा- इस अवस्थामें सब भोगविलासकी सामग्रियोंसे परिपूर्ण बड़े बड़े महलोंकी शोभा और आदमियोंकी चहलपहलसे नाजवानोंको खुश करनेवाली नगरी ही- जंगल है । हे नवयुवक पाठकगण, तुम्हारे हृदय और मेरे हृदयसे बिल्कुल मेल नहीं है। खास कर तुम्हारा ही हृदय मेरे हृदयसे नहीं मिलता । ईश्वर न करे कोई आपत्ति आपड़े तो उस समय शायद तुममें से कोई पूछने भी आवे कि "ए बुड्ढे, तूने बहुत देखा सुना है। बता, इस विपत्तिमें मैं क्या करूँ ?" लेकिन अमन चैनके समय कोई नहीं कहेगा कि " ए बूढ़े, आज हमारे खुशीका दिन है, आ, तू भी आनन्द मना।" बल्कि ऐसे जल्से तमाशेमें इस बातकी कोशिश की जायगी कि बूढ़े खूसटको खबर न होने पावे । तो बताओ, जंगलमें बाकी क्या है ? । ... हे प्रौढ़ पाठकगण ! जहाँ तुम पहले स्नेहकी प्रत्याशा करते थे वहीं तुम इस समय भय या भक्तिके पात्र हो । जो पुत्र, तुम्हारी जवा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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