Book Title: Jain Hiteshi 1913 Ank 06 07
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 6
________________ ३२४ मगर कठिनता तो यह है कि मैं मानूं या न मानूं, लेकिन बुढ़ापा नहीं मानता। वह चला ही आता है। मैं लाख दूर भाD-पर वह पीछानहीं छोड़नेका। धीरे धीरे पल पल आयु क्षीण होती जाती है । जवानीवाला किनारा दूर होता जा रहा है। मैं लाख कहूँ कि बूढ़ा नहीं हुआ, लेकिन 'मैं बूढ़ा हो चला'-इसका अनुभव मुझे हर घड़ी होता जाता है। लोग हँसते हैं, मैं केवल उनका मन रखनेके लिये हँसीकी नकल कर देता हूँ। लोग गाते बजाते हैं, मैं केवल यह दिखानेके लिये कि मैं अभीतक बूढ़ा नहीं हुआ-मुझमें जवानीका उल्लास वैसा ही है, उनकी मण्डलीमें शामिल होता हूँ। लेकिन सच पूछो तो हँसने बोलने या गाने बजानेके लिये हृदय नहीं हुलसता। मेरे लेखे उत्साह है ही नहीं। आशा, मेरी समझमें अपने आत्माको धोखा देना है। कहाँ, मुझमें तो उत्साह या आशा-भरोसा कुछ भी नहीं है। जो है नहीं, उसे खोजनेकी भी कोई ज़रूरत नहीं। खोजनेसे क्या मिलेगा ? जो फूलोंकी माला इस जीवनवाटिकाको सुगंधित और सुशोभित करती थी, उसके सब फूल एक एक करके झड़ गए। जो सदा प्रफुल्लित मुखकमल मुझे बहुत प्यारे लगते थे, उनमें बहुतसे अदृश्य हो चुके, और बहुतसे अब भी घाममें मुरझाए हुए तीसरे पहरके फूलकी तरह देख पड़ते हैं; उनमें वह रस नहीं है। इस टूटेफूटे भवनमें, इस निरानन्द बंद नाट्यशालामें, इस उजड़ी हुई महफिलमें वह उज्ज्वल दीपमाला कहाँ है ? एक एक करके सब प्रकाश बुझ गए। केवल मुख ही नहीं, वह सरल स्नेहपूर्ण-विश्वासमें दृढ़सौहार्दमें स्थिर-अपराध करनेपर भी प्रसन्न बन्धु-हृदय कहाँ है ? नहीं है। किसके दोषसे नहीं है ? इसमें मेरा दोष नहीं, बन्धुओंका भी दोष नहीं, दोष है अवस्थाका अथवा यमराजका। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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