Book Title: Jain Dharm aur Vividh Vivah
Author(s): Savyasachi
Publisher: Jain Bal Vidhva Sahayak Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ (११) भी स्वस्त्री बनाई जा सकती है। विवाह के पहिले विधवा परस्त्री है, परन्तु विवाह के बाद स्वस्त्री हो जायगी । तब उसे व्यभिचार कैसे कह सकते हैं ? जब विवाह में व्यभिचार दोष के अपहरण की ताकत है. और कन्याओं के विषय में उसका प्रयोग किया जा चुका है तो विधवाओं के विषय में क्यों नहीं किया जा सकता है ? कहा जा सकता है कि स्त्री ने जब एक पति (स्वामी) बना लिया तब वह दूसरा पति कैसे बना सकती है ? इसका उत्तर यही है कि जब पुरुष, एक पत्नी (स्वामिनी) के रहने पर भी दूसरी पत्नी बना लेता है तो स्त्री विधवा होने पर भी क्यों नहीं बना सकती ? मुनि न बन सकने पर जिस प्रकार पुरुष दूसरा विवाह कर लेता है,उसी प्रकार स्त्री भी आर्यिका न बन सकने पर दूसरा विवाह कर सकती है । स्त्री किसी की सम्पत्ति नहीं है । अगर सम्पत्ति भी मान ली जाय तो सम्पत्ति भी मालिक से वश्चित नहीं रहती है। एक मालिक मरने पर तुरन्त उसका दूसरा मालिक बन जाता है। दूसरा मालिक बनाना या बनना कोई पाप नहीं है। इससे साफ़ मालूम होता है कि विधवा विवाह और व्यभिचार में धरती आसमान का अन्तर है जैसे कि कुमारी विवाह और व्यभिचार में है। प्रश्न (५)--वैश्या और कुशीला विधवा के आन्तरिक भावों में मायाचार की दृष्टि से कुछ अन्तर है या नहीं? उत्तर-यद्यपि मायाचार सम्बन्धी अतरंग भावों का निर्णय होना कठिन है, फिर भी जब हम वेश्या सेवन और परस्त्री सेवन के पाप में तरतमता दिखला सकते हैं तो इन दोनों के मायाचार में भी तरतमता दिखाई जा सकती Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64